कुरान-ए-करीम के फैसले बिलकुल साफ हैं। अगर कोई जाबिर-ओ-जालिम है तो मजहब-ए-इस्लाम से ही खारिज हो जाता है। ऐसा व्यक्ति लाख कुरान को पढ़े, उसे कुछ भी समझ में न आएगा। क्योंकि नूरानी कलेमात अंधेरे में घिरे होने के सबब चकाचैंध कर देते हैं। यही सबब है कि वह तालिबानी जो सुन्नी और वहाबी के नाम पर, सुन्नी और शिया के नाम पर दुनिया के कई देशों में कत्ल-ओ-गारत मचाए हुए हैं, वह अपने को तालिबान (students) कहने के बावजूद कुरान और इस्लाम की शिक्षा से बहुत दूर हैं।
मुझे बताओ कि किसी ने अजान में ‘हय्या अला खैरिल अमल’ - अच्छे कर्म की ओर तेजी से आओ - क्हा और किसी ने अजान में ‘अस्सलात-ओ-खैरूम मिनन नौम’ - नमाज नींद से बेहतर है - कह दिया तो क्या पहाड़ टूट गया। दीन में घटाना बढ़ाना क्या तुम ने नहीं किया शियो, जैसे इमामत को रिसालत से आगे बढ़ा दिया या सहाबा का तजकिरा तक करना गवारा नहीं किया। तुम ने अली को बढ़ाया था तो साथ में मौहम्मद को भी उतना ही बढ़ाया होता और अल्लाह का तजकिरा उससे भी ज्यादा किया होता तब तो समझ में आता। जैसे मैं अब अली और मौहम्मद का रोल बतौर नूर इस सृष्टि में उससे बहुत बड़ा साबित कर रहा हूं जो तुम मानते हो। लेकिन जब यह रोल तुम्हारी सारी सोच से बड़ा है तो बताओ अल्लाह को तुम क्हां से पहचान सकते हो। तुम्हारी सीमित सोच अल्लाह को पहचान ही नहीं सकती थी इसलिए उसने नूर को खल्क किया ताकि तुम अल्लाह के उन बन्दों के रास्ते जो सारी जिन्दगी उसके आगे नतमस्तक रहे अल्लाह को पहचान सको। और तुम इन्हें अल्लाह से मिलाने लग गए? हकीकत यह है कि जब यह अहलेबैत ही नूर के रूप में तुम्हारी सोच से बहुत अधिक ताकत-ओ-कुव्वत रखते हैं तो तुम अल्लाह को क्हां पहचान सकते हो।
अल्लाह अर्थात ईश्वर भी जैसे यही चाहता था कि आखिरी जमाने में जब हक सामने आए तो किसी भी धर्म या फिरके को घमंड करने का मौका न मिले। क्योंकि क्हीं न क्हीं भटके हुए तो तुम सब हो। यही कारण है कि जिन अहलेबैत को शियो तुम बढ़ा कर इतना आगे ले जाते हो कि अल्लाह की इबादत और इताअत को फरामोश करने लगते हो, उनका बतौर नूर अर्थात देवता असली रोल जो तुम्हारी सोच से भी परे है सामने आ रहा है तो उन हिन्दुओं की किताबों से जिन हिन्दुओं को तुम काफिर क्हा करते हो। वहाबियों तुम ने इबादत और इताअत पर जोर दिया, इस मामले में शिया तुम से आगे ठहरे, लेकिन अहलेबैत को बिलकुल ही छोड़ दिया। सुन्नियों में भी इबादत और इताअत आम शियों से ज्यादा है, इस मामले में सुन्नी बेहतर ठहरे। लेकिन सच्चाई तो यह है कि इब्लीस अर्थात शैतान ने ऐसे भटकाया कि हिन्दु, शिया, सुन्नी कुछ चीजों को दामन से लगाए बैठे रहे जब्कि कई दूसरी अहम चीजों को छोड़ दिया। अब जब हक सामने आ रहा है तो कोई नहीं कह सकता कि हम पूरी तरह हक पर थे। सीधा रास्ता सब के पास था लेकिन सब के सब उस से भटके हुए थे।
अहलेबैत अर्थात मानव शरीर में आए देवता - नूर - तो तुम्हारी आजमाईश और रहनुमाई के लिए थे। यह वह वसीला अर्थात राह हैं जिनके माध्यम से तुम हमेशा की जिन्दगी पा सकते हो। लेकिन शियो तुम अगर यह समझते हो कि अच्छे कर्म किए बिना इनके रास्ते पर आ जाओगे तो यह मुमकिन नहीं। क्या तुम ने इनकी जिन्दगियों को नहीं देखा जब यह मानव शरीर में जमीन पर रह रहे थे। इन्होंने कैसे कर्म किए? क्या तुम किसी भी लम्हे इनको अपने फराएज से दूर देख पाए? क्या तुम एक छोटा से छोटा उदाहरण दे सकते हो कि इन्होंने कोई गलत कर्म किया हो? फिर तुमने क्यों कर्म को प्रधानता देना तर्क कर दिया? सुन्नियों तुम ने तो इबादत को महान माना था, फिर क्यों तुम्हारी इबादत तुम्हारे आचरण को नहीं बदल पाई, कि आज सारी दुनिया मुसलमानों को जाहिल, गन्दा, लड़ाका और न जाने ऐसे कैसे कैसे नामों से याद करती है। क्या इबादत का मतलब सिर्फ उन अरबी जबान की आयतों को पढ़ लेना था जिनका मतलब तुम्हें पता नहीं? या इबादत का मतलब अपने अन्दर नूर को जगाना था? अपने मस्तिष्क के तार अल्लाह से जोड़ना था? आत्मा को परमात्मा के करीब करना था?
क्या यही बातें तुम्हें नहीं बताई गई थीं, हिन्दुओं! लेकिन तुम ने रामायण और महाभारत जैसे काव्यों,जो हमारे तुम्हारे जैसे आम आदमियों द्वारा लिखे गए हैं, से आगे आकर वेद और उपनिषद की शिक्षा को पढ़ने की कोशिश ही कब की कि जान सको कि उसमें क्या मार्ग दर्शाया गया है। 14 देवताओं में एक देवी है जिसके अनेक नाम हैं जिसमें एक नाम लक्ष्मी भी है क्योंकि यही देवी हमें हर प्रकार की दौलत प्रदान करती है। तुम ने लक्ष्मी नाम की देवी को प्रधानता इसलिए दी क्योंकि यह तुम्हें इस दुनिया में लाभ देती है। पर यदि गीता के अनुसार देखें तो क्या यह नहीं दर्शाता कि तुम्हारी सोच यदि तमसिक नही तो सात्विक भी नहीं है। तुम दुनिया के हो कर रह गए हो, तुम्हारी सोच रजसिक है। तुम्हें इस दुनिया के लाभ और लालच से आगे कुछ नहीं दिखता। यही कारण है कि इसी देवी और अन्य 13 देवताओं द्वारा प्रशस्त किया जा रहा सात्विक मार्ग जो तुम्हें मोक्ष के मार्ग पर ले जाए वह धूमिल सा हो गया है। जरा दिल पर हाथ रख कर बताओ, कि तुम दिन भर में कितने कर्म ईश्वर की याद को ताजा रखने और मोक्ष की चाह में आत्मा के उत्थान की कोशिश में करते हो?
हिन्दुओं, मैत्री उपनिषद ने जो न करने को क्हा था वही तुम ने कर दिया। मैत्री उपनिषद कह रहा है कि ज्ञान - ईश्वरीय ज्ञान जिसमें यह देवता प्रमुखता से आते हैं - के मार्ग में आने वाली सब से बड़ी बाधा यह है कि जो स्वर्ग में जाने लाएक हैं उनके साथ तुम उनको जोड़ देते हो जो स्वर्ग में जाने लाएक ही नहीं। उनके सामने बाग है परन्तु वह छोटे से पौधे को सहारा बनाते हैं। जो पाखंडी हैं तुम उन्हें सच्चा मानते हो। और जो बड़ी बड़ी बातें, झूठ पर आधारित तर्क और बड़े दार्शनिक दिखने वाले विचार सामने रख कर तुम्हें वेदों की अस्ली शिक्षा अर्थात देवताओं को और उनके रोल को पहचानने की शिक्षा से विचलित कर देना चाहते हैं, उनसे नाता न रखो। यह लोग दरअस्ल चोर हैं और स्वर्ग में जाने के लाएक नहीं। इसी लिए क्हा गया कि झूटे तर्कों और सबूतों के आधार पर और उन लेखनियों के आधार पर जो आत्मा को झुटलाती है यह दुनिया ज्ञान और बुद्धिमत्ता में अन्तर तक नहीं कर पाती। ऐसा मैत्री उपनिषद कह रहा है जिसे तुम बड़े आदर से देखते होः
VII.8 says:
Now then, the hindrances to knowledge, O King. This
is indeed the source of the net of delusion, the association of one who is
worthy of heaven with those who are not worthy of heaven, that is it. Though it
is said there is a grove before them they cling to a low shrub. Now there are
some who are always hilarious, always abroad, always begging, always making a
living by handicraft. And others are who are beggars in town, who perform
sacrifices, for the unworthy, who are the disciples of Sudras and who, though
Sudras, are learned in the scriptures. And others there are who are wicked, who
wear their hair in a twisted knot, who are dancers, who are mercenaries,
traveling mendicants, actors, those who have been degraded in the king’s
service. And others there are who, for money, profess they can allay (the evil
influences) of Yaksas (sprites), Raksasas (ogres), ghosts, goblins, devils,
serpents, imps and the like. And others there are who, under false pretexts,
wear the read rope, earrings and skulls. And others there are who love to
distract the believers in the Veda by the jugglery of false arguments,
comparisons and paralogisms, with these one should not associate. These
creature, evidently, are thieves and unworthy of heaven. For this has it been
said: The world bewildered by doctrines that deny the self, by false
comparisons and proofs does not discern the difference between wisdom and
knowledge.
मुसलमानों तुम तो हर समय कुरान को गले से लगाए रहते हो। फिर तुम ने वह क्यों नहीं माना जो कुरान कह रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि तुम भी कुरान को वही कहता देखना चाहते हो जो तुम्हारा दिल कहता है। वह नहीं सुनना चाहते जो अल्लाह तुम से कह रहा है। क्या कुरान का सब से शुरू का ही सूरा तुम्हें पाठ के तौर पर याद नहीं करा रहा था कि हम अल्लाह में यकीन रखते हैं और उसके द्वारा जो कुछ इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक, याकूब और याकूब के 12 बेटों अल-अस्बात और मूसा और ईसा और विभिन्न पैगाम्बरों पर उनके रब द्वारा दिया गया? क्या कुरान साफ शब्दों में हमें रटने को नहीं कह रहा कि हम इनमें से किसी में भी कोई अन्तर नहीं समझते और हमने अपने को अल्लाह अर्थात ईश्वर के आगे सुपुर्द अर्थात नतमस्तक कर दिया?
पढ़ो सूरह बकरः
Surah Al-Baqara, 136. Say (O
Muslims), "We believe in Allah and that which has been sent down to us and
that which has been sent down to Ibrahim (Abraham), Isma'il (Ishmael), Ishaque
(Isaac), Ya'qub (Jacob), and to Al-Asbat [the twelve sons of Ya'qub
(Jacob)], and that which has been given to Musa (Moses) and 'Iesa (Jesus), and
that which has been given to the Prophets from their Lord. We make no
distinction between any of them, and to Him we have submitted (in Islam)."
तुम बच्चों को यही रटाते रहे कि आसमानी किताबें चार हैं। बताओ इस आयत की रौशनी में क्हां हैं चार? चलो मान लें, कि चार ही हैं, कुरान के अतिरिक्त तुम एक भी दिखाओ जिसे तुम पढ़ते हो या अपने बच्चों को पढ़ाते हो। या अगर तुम्हें नहीं पता कि वे किताबें कौन सी हैं और क्हां हैं तो कम से कम इस कोशिश मे हो कि वे तुम्हें मिल जाएं। तुम्हारा कुरान ही और किताबों को इतनी अहमियत दे रहा है कि यहां तक कह रहा है कि हम कुरान और उन किताबों में कोई अन्तर नहीं समझते। फिर क्यों तुम में से कोई एक भी ऐसी कोशिश करता नहीं दिखाई देता?
तुम ने तो कुरान भी केवल पढ़ा ही, परन्तु उसको नहीं माना। यदि ऐसा न करते तो तुम सत्य मार्ग से इतना न भटकते। क्या कुरान अहलेबैत के हर छोटे से छोटे रिज्स अर्थात बुराई से पाक होने की बात नहीं कर रहा? क्यों? क्योंकि यह नूर से बने थे! Complete Noor दूसरी ओर complete zulmat है अर्थात जहां अच्छाई का जरा भी गुजर नहीं। इतने साफ शब्दों में अहलेबैत के बारे में बात हुई और तुम ने जानने की कोशिश भी नहीं की कि वे शख्सियतें कौन हैं जिनकी पाकीजगी की गारण्टी ली जा रही है ताकि हम देखें कि उन्होंने जिन्दगी कैसे गुजारी? ठीक ऐसे ही उपनिषद और वेदों ने देवताओं की पाकीजगी की गारण्टी ली परन्तु हिन्दुओं ने यह कोशिश तक ही त्याग दी कि जानें कि देवता कौन हैं।
यह जान लो कि नूर और जुलमत हमारे अन्दर ही है। तुम नूर और जुलमत, सत्य और असत्य, सात्विक और तमसिक दोनों मार्ग अपना सकते हो। नूर का मार्ग अपनाओगे तो फरिश्तों से बेहतर हो जाओगे, गीता के पुरूषोत्तम कहलाओगे। जुलमत का मार्ग अपनाओगे तो पशुओं से बदतर हो जाओगे। फिर तुम लाख मंदिर का घंटा बजाते रहो या मस्जिद में नमाज के नाम पर टक्करें मारते रहो, तुम्हारा भला नहीं होने वाला।
याद रखो सारी सलतनत केवल खुदा की है। अल्लाह अर्थात ईश्वर ही वह हाकिम है जिसकी अदालत में कोई छोटा कोई बड़ा नहीं। सब बराबर हैं। ईश्वर द्वारा भेजे गए नूर को पहचानने के बाद केवल कर्म की ही प्रधानता है। वह इतना दयालू है कि हमारी छोटी से छोटी कोशिश का भी हमें फल देता है भले ही इस लेख के लिखने की मेरी कोशिश या सच्चे मन से पढ़ने की तुम्हारी कोशिश हो। वह कोई रियाजत फरामोश नहीं करता। यही कारण है कि यदि तुम ने अहलेबैत के अस्ली रोल को नहीं पहचाना और उनके जिस्मों अर्थात शरीर को चाह कर उनकी देखा देखी कुछ अच्छे कर्म किए तो उनका भी तुम्हें अच्छा बदला अवश्य मिलेगा।
तुम जिस कदर भटके हुए हो, अल्लाह अर्थात ईश्वर चाहे तो उसे समय नहीं लगेगा सजा को तुम्हारी ओर भेजने में। लेकिन जब तक वह मुकदमे को पेश न कर दे, अदालत को कायम न कर दे, वह इस दुनिया को खत्म नहीं करेगा। यह गैबी अदालत खुदा की है, यह फैसले खुदा के हैं। तुम्हारे अन्दर से नूरे खुदा तुम्हें पुकार रहा है। इत्तेमामे हुज्जत की खातिर। यह हिकमत है खुदा की तौहीद को कायम रखने के लिए। अब तो पहचान लो सीधा रास्ता!
अब देखना है कौन पैरवी करेगा खुदा की और कौन शैतान की। मुकदमे का फैसला तो यह अमल देखने के बाद ही होगा। उस रोज से डरो जब तुम अपने ईश्वर के सामने पेश किए जाओगे। और तुम्हारा कोई मददगार न होगा!