610 ई में जिस समय पैगम्बर मौहम्मद ने अरब के रेगिस्तान में अपने को ईश्वर का दूत होने का एलान किया उस समय के अरब में दुनिया की हर बुराई मौजूद थी। वे अशिक्षित थे, कबीलों में बटे हुए थे जो जरा जरा सी बात पर कई कई पीढि़यों तक लड़ते रहते थे, बेटियों को जीवित जमीन में दफना देने की प्रथा थी, किसी को दास बना ले...ना आम बात थी और घरों में रहने के स्थान पर अधिकतर अरब बंजारों के समान जिन्दगी गुजारते थे।
यह वह समय था जब समूचा विश्व अंधेरे में घिरा था। चीन और मिस्र की सभ्यताएं समाप्त हो चुकी थीं। भारत भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास को पीछे छोड़ चुका था जब उसने विश्व को ज्ञान दिया था। भारत की ओर देखते तो कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। पर्शिया और रोमन हुकूमतें केवल इलाकों पर कब्जा करने और एक दूसरे को पछाड़ने में लगी थीं। अरब तो इन सब से कटा हुआ रेगिस्तान से भी परे बसा इलाका था।
ऐसा क्या हुआ कि अगले दो सौ वर्षों में विश्व ने देखा कि साईंस और तक्नालोजी में सब से आगे मुसलमान दिखाई दिए। फादर आफ कैमिस्टरी मुसलमान, गणित और फिजिक्स में सब से आगे मुसलमान, हिस्टरी के ज्ञानी मुसलमान, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में सब से उल्लेखनीय काम करने वाले मुसलमान और समूचे विश्व में बिखरे ज्ञान को एकत्रित करने और आगे बढ़ाने वाले मुसलमान। जितनी तेजी से मुसलमानों ने सब क्षेत्रों में अपना नाम बनाया, करीब 200 वर्ष के पश्चात उतनी ही तेजी से लुप्त भी हो गए।
इतिहासकार कहते हैं कि पैगम्बर मौहम्मद ने एक खुदा पर यकीन करने का जो पाठ सिखाया था उसने मुसलमानों को इतना निर्भीक बना दिया था कि वे किसी भी खतरे से डरे बिना हर प्रकार का ज्ञान अर्जित करने में लग गए। यह कुछ हद तक सही हो सकता है परन्तु कुछ और तथ्य हैं जिनको जाने बिना सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
यदि हम मुस्लिम इतिहास को देखें तो 632 ई में पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय बाद से ही मुसलमान भी रोमन और पर्शियन हुकूमतों की तरह इलाकों पर कब्जा करने और आपसी कलह में लगे दिखाई देते हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि पैगम्बर मौहम्मद की जिन्दगी में एक भी अवसर ऐसा नहीं दिखाया जा सकता जब उन्होंने किसी भी जमीन पर कब्जा करने के लिए हमला किया हो। जितनी भी लड़ाईयां हुईं वह उन लोगों के साथ हुईं जिन्होंने मुसलमानों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हमला किया था। यह खबर मिलने पर कि रोमन फौजें मुसलमानों के इलाकों में घुसकर लूटमार करते हैं, एक अवसर पर पैगम्बर मौहम्मद कुस्तनतनिया की ओर गए भी परन्तु जब रोमन सामने नहीं आए तो वापिस आ गये और अपने इलाके से बाहर जाकर रोमन इलाके में कदम भी नहीं रखा।
परन्तु हम देखते हैं कि पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय बाद से मुसलमानों ने चारों ओर हमले प्रारम्भ कर दिए और जो धर्म आत्मा के उत्थान की शिक्षा देता था, दुनिया के प्रलोभन को छोड़ निजात अर्थात मोक्ष की बात करता था, अगली दुनिया में अच्छा स्थान पाने हेतु इस दुनिया में ईश्वर को समर्पित जीवन बिताने की बात करता था और अपने अन्दर के शैतान से जिहाद करना बताता था उसने जमीनों पर कब्जे को जिहाद समझ लिया। रूहानी इस्लाम के स्थान पर शासकों का इस्लाम फैलने लगा जिसमें एक बार फिर शान ओ शौकत, टैक्स वसूली, रंग रेलियां, दास दासियों आदि की महत्ता सामने दिखाई पड़ी। एक ओर अली जैसे खलीफा थे जो अपनी जूतियां स्वयं जोड़ा करते थे, जौ की रोटी खाते थे और पेबंद लगे कपड़े पहनते थे तो दूसरी ओर जो मुस्लिम शासक नजर आए वे शान ओ शौकत में ईरान और रोमन शासकों को मात देते दिखाई दिए। ईरान और सीरिया पर कब्जे के बाद अफगानिस्तान और सिंध तक, आज के चीन और रूस के इलाकों तक, समूचे उत्तरी अफरीका और यहां तक कि स्पेन तक पर मुसलमानों का कब्जा हो गया।
प्रश्न यह उठता है कि वे मुसलमान जो स्पेन पर कब्जे के बाद रास रंगेलियों और आपसी कलह में इस प्रकार उलझे कि दो सौ वर्षों के भीतर उन्हें वहां से मार मार कर भगाया गया वे कैसे साईंस, तक्नालोजी आदि में इतनी तरक्की कर पाए कि तमाम विश्व में नाम कमाया। सर्वप्रथम शासक माविया के पश्चात यजीद से लेकर अगले 90 वर्ष की उमैय्या हुकूमत और फिर दो सौ वर्षों से अधिक की अब्बासी हुकूमत में अधिकांश शासक ज्ञान से परे थे और उनके आचरण को देखते हुए उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनके नेतृत्व में मुसलमान साईंस और तकनीक में तरक्की करते। फिर यह तरक्की कैसे हुई?
मैं ने जब इस्लाम को समझने की कोशिश की तो मैंने पाया कि पैगम्बर मौहम्मद के पश्चात कुछ ही समय में इस्लाम दो भागों में बंट गया। यह वह कटु सत्य है जिसको मुस्लिम साहित्यकार नहीं बताते। परन्तु इसके दूरगामी प्रभाव यह होते हैं कि भारत, युरोप और अमरीका के लोग मुसलमानों का इतिहास पढ़ते हैं और देखते हैं कि मुसलमानों का आचरण क्या था तो वे इस्लाम पर उंगली उठाने लगते हैं और कहते हैं कि इस्लाम तलवार से फैला। यहां तक कि वे पैगम्बर मौहम्मद के दीन पर ही लांछन लगाते हैं।
उनको गलत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि मुसमलान साहित्यकार भी कुछ हकीकतों को छिपाने की खातिर सत्य नहीं बताते। माविया, यजीद जैसे कुछ मुसलमानों को इतिहास दोषी न कहे इस कारण इस्लाम और पैगम्बर मौहम्मद की शिक्षा पर ही दाग लगने देते हैं। यह इसलिए भी होता है कि प्रारंभ के 300 वर्षों में इतिहासकारों ने उमैय्या और अब्बासी हुकूमतों की जेरे निगरानी इतिहास को समझा और लिखा और इस्लाम का वही रूप पेश किया जो हुकूमतें पेश करना चाहती थीं।
मैंने जितना इस्लाम को समझा उस में मैंने देखा कि पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के 50 साल के भीतर ही तमाम मुस्लिम दुनिया उनके रास्ते से भटक चुकी थी। यह भटकाव समझ में ही नहीं आता और हम भटके हुए मुसलमानों के तौर तरीकों को ही इस्लाम समझते रहते यदि करबला एक मील के पत्थर की मानिंद हमारे सामने न होता जब मुसलमानों की फौज ने पैगम्बर मौहम्मद के घर वालों जिसमें उनके सब से प्रिय नाती हुसैन और उनके भाईयों, बेटों और कुछ मित्रों को बरबरता पूर्वक कत्ल न कर दिया होता। जिस बेरहमी से हुसैन और पैगम्बर मौहम्मद के घर के दूसरे लोगों को मारा गया वह आज के आईएसआईएस और तालिबान की बेरहमी को पीछे छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो आज जो इस्लामी आतंकवाद क्हा जा रहा है जो दरअस्ल इस्लामी आतंकवाद नहीं है बल्कि शासकों द्वारा प्रायोजित इस्लाम या यूं कहें कि बहका हुआ और भटका हुआ इस्लाम है उसके आतंक का पहला शिकार पैगम्बर मौहम्मद के घर वाले ही बने थे। यह शासक वे थे जिनका किसी धर्म से कोई नाता नहीं था। उनका धर्म शासकों का धर्म था जो धर्म की आड़ में और धार्मिक उन्माद को सियासत के रूप में प्रयोग करने में महारत रखते थे।
पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय पश्चात ही मुसलमान भटकना प्रारंभ हुए यहां तक कि हम देखते हैं कि दो प्रकार का इस्लाम दिखाई देता है। एक रूहानी इस्लाम और दूसरा शासकों का इस्लाम। रूहानी इस्लाम का प्रतिनिधित्व कर रहे थे अहलेबैत जिनका उल्लेख कुरान में भी था और जिनके बारे में पैगम्बर मौहम्मद ने असंख्य बार भविष्यवाणी की थी कि यदि उनका साथ छोड़ा तो गुमराह हो जाओगे। दूसरा इस्लाम था शासकों का इस्लाम जिसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे उमेय्या और अब्बासी शासक जो जालिम थे, इस्लामी उसूलों और शिक्षा का खुलकर उपहास उड़ाते थे और वे सब कुछ करते थे जिसको इस्लाम ने बुरा कहा और जिसकी मनाई की परन्तु अपने आप को मुसलमानों का खलीफा कहलवाते थे।
शासकों के इस्लाम और पैगम्बर मौहम्मद द्वारा दिखाए गए रूहानी इस्लाम जिसका प्रतिनिधित्व अहलेबैत कर रहे थे का हर जमाने में आमना सामना रहा। केवल करबला में हुसैन और उनके साथियों को ही बरबरतापूर्वक नहीं मारा गया बल्कि अहलेबैत में से हर एक को मुसलमानों ने सताया, उनके साथियों और अनुयायियों को मारा पीटा और स्वयं अहलेबैत को अधिकांश कैद में या नजरबंदी में रहना पड़ा। अहलेबैत में से एक भी ऐसा नहीं जो अपनी मौत मरा हो; सब को ही जहर या तलवार से मार डाला गया। जो लोग आज के तालिबान, अलकाएदा और आईएसआईएल की हरकतों को देखकर उसे इस्लाम से जोड़ते हैं उनके लिए यह उदाहरण काफी है कि जिन अहलेबैत को कुरान पाक बता रहा था, जिनके बारे में पैगम्बर मौहम्मद कह रहे थे कि यदि उनके रास्ते को छोड़ा तो तुम गुमराह हो जाओगे, उनपर ही मुसलमानों ने हर प्रकार के जुल्म की हद कर दी।
आप सूफी इस्लाम को अमनपसन्दी के रूप में देखते हैं लेकिन आप को यह नहीं बताया जाता कि सूफी इन्हीं अहलेबैत की शिक्षा से जुड़े थे। यह अहलेबैत रूहानी शिक्षा के पेश्वा थे। सर्वधर्म सम्भाव, अमन, इंसाफ और रूहानियत की चरमसीमा देखना हो तो इनकी जिन्दगी को देखें और पढ़ें। यह सदैव सत्य और मानवीय मूल्यों के पालक रहे यहां तक कि मौत के साए में भी अस्ली इस्लाम की शिक्षा का उसी मुस्तैदी से पालन करते रहे जैसा अमन के दिनों में करते थे।
पैगम्बर मौहम्मद के बाद से करीब 850 ई तक अहलेबैत खामोशी से रूहानी इस्लाम की शिक्षा देते रहे। आप को यह जान कर हैरानी होगी कि यही वह समय था जब मुसलमान शिक्षा और साईंस के क्षेत्र में सारी दुनिया में वर्चस्व रखते थे। जहां मुस्लिम शासक शान ओ शौकत, विलास भोग और ताकत के नशे में चूर थे यह अहलेबैत खामोशी से अंधेरे में डूबी दुनिया को ज्ञान की रौशनी देते रहे। एक ओर शासक नहीं चाहते थे कि मदरसों में गणित पढ़ाई जाए कि कहीं मुसलमान अकल का प्रयोग करना न प्रारंभ कर दें वहीं इन अहलेबैत द्वारा चलाए जा रही शिक्षा संस्थानों में से अपने समय के सब से बड़े गणितज्ञ, कैमिस्टरी, फिजिक्स, चिकित्सा और सर्जरी के पंडित निकल रहे थे। इतिहास बताता है कि एक समय आया जब उमैय्या शासक कमजोर पड़ गए थे और अब्बासियों से जंग चल रही थी जिन्होंने उमैय्या को हटा कर शासन संभाला। यह वह वर्ष थे जब शासकों का ध्यान अहलेबैत पर नजर रखने से चूका। ऐसे समय में अहलेबैत ने ज्ञान के वह दरिया बहाए कि अहलेबैत मौहम्मद बाकिर और अहलेबैत जाफर सादिक के पास एक ही समय में करीब 6000 तक लोग ज्ञान अर्जित करने के लिए इकट्ठा दिखाई पड़ते थे। जिस विश्व ने मुसलमानों को शासन करते देखा उस विश्व को यदि मुसलमानों द्वारा ठंडे पड़े ज्ञान की नई रौशनी ने चकाचैंध कर दिया तो इन्हीं अहलेबैत के घरों पर चलने वाली युनिवर्सिटियों द्वारा।
इस्लामी शिक्षा को समझना है तो इन पैगम्बर मौहम्मद और इन अहलेबैत की जिन्दगी देखिए। तालिबानी इस्लाम की नींव क्हां पड़ी यह समझना है तो पैगम्बर मौहम्मद के पश्चात के पहले दो सौ वर्षों का इतिहास किसी ऐसे इतिहासकार की नजर से पढ़े जिसने सत्य का त्याग न किया हो।
यह वह समय था जब समूचा विश्व अंधेरे में घिरा था। चीन और मिस्र की सभ्यताएं समाप्त हो चुकी थीं। भारत भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास को पीछे छोड़ चुका था जब उसने विश्व को ज्ञान दिया था। भारत की ओर देखते तो कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। पर्शिया और रोमन हुकूमतें केवल इलाकों पर कब्जा करने और एक दूसरे को पछाड़ने में लगी थीं। अरब तो इन सब से कटा हुआ रेगिस्तान से भी परे बसा इलाका था।
ऐसा क्या हुआ कि अगले दो सौ वर्षों में विश्व ने देखा कि साईंस और तक्नालोजी में सब से आगे मुसलमान दिखाई दिए। फादर आफ कैमिस्टरी मुसलमान, गणित और फिजिक्स में सब से आगे मुसलमान, हिस्टरी के ज्ञानी मुसलमान, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में सब से उल्लेखनीय काम करने वाले मुसलमान और समूचे विश्व में बिखरे ज्ञान को एकत्रित करने और आगे बढ़ाने वाले मुसलमान। जितनी तेजी से मुसलमानों ने सब क्षेत्रों में अपना नाम बनाया, करीब 200 वर्ष के पश्चात उतनी ही तेजी से लुप्त भी हो गए।
इतिहासकार कहते हैं कि पैगम्बर मौहम्मद ने एक खुदा पर यकीन करने का जो पाठ सिखाया था उसने मुसलमानों को इतना निर्भीक बना दिया था कि वे किसी भी खतरे से डरे बिना हर प्रकार का ज्ञान अर्जित करने में लग गए। यह कुछ हद तक सही हो सकता है परन्तु कुछ और तथ्य हैं जिनको जाने बिना सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
यदि हम मुस्लिम इतिहास को देखें तो 632 ई में पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय बाद से ही मुसलमान भी रोमन और पर्शियन हुकूमतों की तरह इलाकों पर कब्जा करने और आपसी कलह में लगे दिखाई देते हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि पैगम्बर मौहम्मद की जिन्दगी में एक भी अवसर ऐसा नहीं दिखाया जा सकता जब उन्होंने किसी भी जमीन पर कब्जा करने के लिए हमला किया हो। जितनी भी लड़ाईयां हुईं वह उन लोगों के साथ हुईं जिन्होंने मुसलमानों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हमला किया था। यह खबर मिलने पर कि रोमन फौजें मुसलमानों के इलाकों में घुसकर लूटमार करते हैं, एक अवसर पर पैगम्बर मौहम्मद कुस्तनतनिया की ओर गए भी परन्तु जब रोमन सामने नहीं आए तो वापिस आ गये और अपने इलाके से बाहर जाकर रोमन इलाके में कदम भी नहीं रखा।
परन्तु हम देखते हैं कि पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय बाद से मुसलमानों ने चारों ओर हमले प्रारम्भ कर दिए और जो धर्म आत्मा के उत्थान की शिक्षा देता था, दुनिया के प्रलोभन को छोड़ निजात अर्थात मोक्ष की बात करता था, अगली दुनिया में अच्छा स्थान पाने हेतु इस दुनिया में ईश्वर को समर्पित जीवन बिताने की बात करता था और अपने अन्दर के शैतान से जिहाद करना बताता था उसने जमीनों पर कब्जे को जिहाद समझ लिया। रूहानी इस्लाम के स्थान पर शासकों का इस्लाम फैलने लगा जिसमें एक बार फिर शान ओ शौकत, टैक्स वसूली, रंग रेलियां, दास दासियों आदि की महत्ता सामने दिखाई पड़ी। एक ओर अली जैसे खलीफा थे जो अपनी जूतियां स्वयं जोड़ा करते थे, जौ की रोटी खाते थे और पेबंद लगे कपड़े पहनते थे तो दूसरी ओर जो मुस्लिम शासक नजर आए वे शान ओ शौकत में ईरान और रोमन शासकों को मात देते दिखाई दिए। ईरान और सीरिया पर कब्जे के बाद अफगानिस्तान और सिंध तक, आज के चीन और रूस के इलाकों तक, समूचे उत्तरी अफरीका और यहां तक कि स्पेन तक पर मुसलमानों का कब्जा हो गया।
प्रश्न यह उठता है कि वे मुसलमान जो स्पेन पर कब्जे के बाद रास रंगेलियों और आपसी कलह में इस प्रकार उलझे कि दो सौ वर्षों के भीतर उन्हें वहां से मार मार कर भगाया गया वे कैसे साईंस, तक्नालोजी आदि में इतनी तरक्की कर पाए कि तमाम विश्व में नाम कमाया। सर्वप्रथम शासक माविया के पश्चात यजीद से लेकर अगले 90 वर्ष की उमैय्या हुकूमत और फिर दो सौ वर्षों से अधिक की अब्बासी हुकूमत में अधिकांश शासक ज्ञान से परे थे और उनके आचरण को देखते हुए उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनके नेतृत्व में मुसलमान साईंस और तकनीक में तरक्की करते। फिर यह तरक्की कैसे हुई?
मैं ने जब इस्लाम को समझने की कोशिश की तो मैंने पाया कि पैगम्बर मौहम्मद के पश्चात कुछ ही समय में इस्लाम दो भागों में बंट गया। यह वह कटु सत्य है जिसको मुस्लिम साहित्यकार नहीं बताते। परन्तु इसके दूरगामी प्रभाव यह होते हैं कि भारत, युरोप और अमरीका के लोग मुसलमानों का इतिहास पढ़ते हैं और देखते हैं कि मुसलमानों का आचरण क्या था तो वे इस्लाम पर उंगली उठाने लगते हैं और कहते हैं कि इस्लाम तलवार से फैला। यहां तक कि वे पैगम्बर मौहम्मद के दीन पर ही लांछन लगाते हैं।
उनको गलत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि मुसमलान साहित्यकार भी कुछ हकीकतों को छिपाने की खातिर सत्य नहीं बताते। माविया, यजीद जैसे कुछ मुसलमानों को इतिहास दोषी न कहे इस कारण इस्लाम और पैगम्बर मौहम्मद की शिक्षा पर ही दाग लगने देते हैं। यह इसलिए भी होता है कि प्रारंभ के 300 वर्षों में इतिहासकारों ने उमैय्या और अब्बासी हुकूमतों की जेरे निगरानी इतिहास को समझा और लिखा और इस्लाम का वही रूप पेश किया जो हुकूमतें पेश करना चाहती थीं।
मैंने जितना इस्लाम को समझा उस में मैंने देखा कि पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के 50 साल के भीतर ही तमाम मुस्लिम दुनिया उनके रास्ते से भटक चुकी थी। यह भटकाव समझ में ही नहीं आता और हम भटके हुए मुसलमानों के तौर तरीकों को ही इस्लाम समझते रहते यदि करबला एक मील के पत्थर की मानिंद हमारे सामने न होता जब मुसलमानों की फौज ने पैगम्बर मौहम्मद के घर वालों जिसमें उनके सब से प्रिय नाती हुसैन और उनके भाईयों, बेटों और कुछ मित्रों को बरबरता पूर्वक कत्ल न कर दिया होता। जिस बेरहमी से हुसैन और पैगम्बर मौहम्मद के घर के दूसरे लोगों को मारा गया वह आज के आईएसआईएस और तालिबान की बेरहमी को पीछे छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो आज जो इस्लामी आतंकवाद क्हा जा रहा है जो दरअस्ल इस्लामी आतंकवाद नहीं है बल्कि शासकों द्वारा प्रायोजित इस्लाम या यूं कहें कि बहका हुआ और भटका हुआ इस्लाम है उसके आतंक का पहला शिकार पैगम्बर मौहम्मद के घर वाले ही बने थे। यह शासक वे थे जिनका किसी धर्म से कोई नाता नहीं था। उनका धर्म शासकों का धर्म था जो धर्म की आड़ में और धार्मिक उन्माद को सियासत के रूप में प्रयोग करने में महारत रखते थे।
पैगम्बर मौहम्मद के देहान्त के कुछ समय पश्चात ही मुसलमान भटकना प्रारंभ हुए यहां तक कि हम देखते हैं कि दो प्रकार का इस्लाम दिखाई देता है। एक रूहानी इस्लाम और दूसरा शासकों का इस्लाम। रूहानी इस्लाम का प्रतिनिधित्व कर रहे थे अहलेबैत जिनका उल्लेख कुरान में भी था और जिनके बारे में पैगम्बर मौहम्मद ने असंख्य बार भविष्यवाणी की थी कि यदि उनका साथ छोड़ा तो गुमराह हो जाओगे। दूसरा इस्लाम था शासकों का इस्लाम जिसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे उमेय्या और अब्बासी शासक जो जालिम थे, इस्लामी उसूलों और शिक्षा का खुलकर उपहास उड़ाते थे और वे सब कुछ करते थे जिसको इस्लाम ने बुरा कहा और जिसकी मनाई की परन्तु अपने आप को मुसलमानों का खलीफा कहलवाते थे।
शासकों के इस्लाम और पैगम्बर मौहम्मद द्वारा दिखाए गए रूहानी इस्लाम जिसका प्रतिनिधित्व अहलेबैत कर रहे थे का हर जमाने में आमना सामना रहा। केवल करबला में हुसैन और उनके साथियों को ही बरबरतापूर्वक नहीं मारा गया बल्कि अहलेबैत में से हर एक को मुसलमानों ने सताया, उनके साथियों और अनुयायियों को मारा पीटा और स्वयं अहलेबैत को अधिकांश कैद में या नजरबंदी में रहना पड़ा। अहलेबैत में से एक भी ऐसा नहीं जो अपनी मौत मरा हो; सब को ही जहर या तलवार से मार डाला गया। जो लोग आज के तालिबान, अलकाएदा और आईएसआईएल की हरकतों को देखकर उसे इस्लाम से जोड़ते हैं उनके लिए यह उदाहरण काफी है कि जिन अहलेबैत को कुरान पाक बता रहा था, जिनके बारे में पैगम्बर मौहम्मद कह रहे थे कि यदि उनके रास्ते को छोड़ा तो तुम गुमराह हो जाओगे, उनपर ही मुसलमानों ने हर प्रकार के जुल्म की हद कर दी।
आप सूफी इस्लाम को अमनपसन्दी के रूप में देखते हैं लेकिन आप को यह नहीं बताया जाता कि सूफी इन्हीं अहलेबैत की शिक्षा से जुड़े थे। यह अहलेबैत रूहानी शिक्षा के पेश्वा थे। सर्वधर्म सम्भाव, अमन, इंसाफ और रूहानियत की चरमसीमा देखना हो तो इनकी जिन्दगी को देखें और पढ़ें। यह सदैव सत्य और मानवीय मूल्यों के पालक रहे यहां तक कि मौत के साए में भी अस्ली इस्लाम की शिक्षा का उसी मुस्तैदी से पालन करते रहे जैसा अमन के दिनों में करते थे।
पैगम्बर मौहम्मद के बाद से करीब 850 ई तक अहलेबैत खामोशी से रूहानी इस्लाम की शिक्षा देते रहे। आप को यह जान कर हैरानी होगी कि यही वह समय था जब मुसलमान शिक्षा और साईंस के क्षेत्र में सारी दुनिया में वर्चस्व रखते थे। जहां मुस्लिम शासक शान ओ शौकत, विलास भोग और ताकत के नशे में चूर थे यह अहलेबैत खामोशी से अंधेरे में डूबी दुनिया को ज्ञान की रौशनी देते रहे। एक ओर शासक नहीं चाहते थे कि मदरसों में गणित पढ़ाई जाए कि कहीं मुसलमान अकल का प्रयोग करना न प्रारंभ कर दें वहीं इन अहलेबैत द्वारा चलाए जा रही शिक्षा संस्थानों में से अपने समय के सब से बड़े गणितज्ञ, कैमिस्टरी, फिजिक्स, चिकित्सा और सर्जरी के पंडित निकल रहे थे। इतिहास बताता है कि एक समय आया जब उमैय्या शासक कमजोर पड़ गए थे और अब्बासियों से जंग चल रही थी जिन्होंने उमैय्या को हटा कर शासन संभाला। यह वह वर्ष थे जब शासकों का ध्यान अहलेबैत पर नजर रखने से चूका। ऐसे समय में अहलेबैत ने ज्ञान के वह दरिया बहाए कि अहलेबैत मौहम्मद बाकिर और अहलेबैत जाफर सादिक के पास एक ही समय में करीब 6000 तक लोग ज्ञान अर्जित करने के लिए इकट्ठा दिखाई पड़ते थे। जिस विश्व ने मुसलमानों को शासन करते देखा उस विश्व को यदि मुसलमानों द्वारा ठंडे पड़े ज्ञान की नई रौशनी ने चकाचैंध कर दिया तो इन्हीं अहलेबैत के घरों पर चलने वाली युनिवर्सिटियों द्वारा।
इस्लामी शिक्षा को समझना है तो इन पैगम्बर मौहम्मद और इन अहलेबैत की जिन्दगी देखिए। तालिबानी इस्लाम की नींव क्हां पड़ी यह समझना है तो पैगम्बर मौहम्मद के पश्चात के पहले दो सौ वर्षों का इतिहास किसी ऐसे इतिहासकार की नजर से पढ़े जिसने सत्य का त्याग न किया हो।
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