Thursday, 28 May 2015

वहाबियों से कलामः क्यों सारे आतंकवादी वहाबी होते हैं हालांकि सारे वहाबी आतंकवादी नहीं होते

मुसलमानों के जिस फिरके को आमतौर पर वहाबी कहा जाता है आज मेरा कलाम उस फिरके से है। गौर ओ फिक्र की दावत है कि क्यों दुनिया में जहां भी आतंकवादी तंजीमें लड़ रही हैं वह वहाबी फिक्र ही रखती हैं? जब्कि यह भी हकीकत है कि अधिकतर वहाबी अमन पसन्द और अल्लाह से डरने वाले होते हैं।

मैंने जितना वहाबियों को देखा उन को खुदा से डरने वाला और अमन पसन्द पाया। बल्कि उनको नमाज रोजे का बाकी मुसलमानों से ज्यादा पाबन्द पाया। फिर क्यों ऐसा है कि चाहे तालीबान हों, अलकाएदा या जैशे मौहम्मद हों, बोको हराम हों या आईसिस हों, सब के सब वहाबी फिक्र को ही मानते हैं। यदि किसी के पास जवाब हो तो बताए?

मैं जितना समझा और मैं गलत भी हो सकता हूं वो आप के सामने पेश कर रहा हूं। जरा बताईए कि क्या यही कारण है? मुझे लगता है कि इसकी जड़ दावा के उस सिस्टम में है जो बजाहिर देखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन उस सिस्टम में कहीं न कहीं कोई कमी है जिसको दूर करना जरूरी है अगर हम वाकई आतंकवाद का खात्मा चाहते हैं।

पहले देखते हैं कि दावा सिस्टम क्या है? इस सिस्टम के तहत दीन के पाबन्द लोग 40 दिन के लिए अपने काम काज से छुट्टी लेकर किसी इलाके में जाते हैं और वहां के मुसलमानों को नमाज पढ़ने, मस्जिद में आने और रोजा रखने को कहते हैं। जो मुसलमान मस्जिद में नहीं आते उनसे चार पांच लोग बात करते हैं और उनसे कहते हैं कि दुनिया से अधिक मरने के बाद के जीवन की चिंता करें और अगर वह मरने के बाद जन्नत अर्थात स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो उन्हें नमाज, रोजा आदि शुरू करना होगा। जब तक वह व्यक्ति मस्जिद में आना शुरू नहीं करता, उसको बुलाने की कोशिश करते हैं, और मस्जिद में उसे दीन के बारे में बताया जाता है, अगली दुनिया सुधारने के लिए इस दुनिया में इबादत करने पर जोर दिया जाता है और धीरे धीरे सुन्नत पर अमल, जैसे दाढ़ी रखना, टखनों से उंचा पजामा पहना, आदि के लिए प्रेरित किया जाता है।

लेकिन आप कहेंगे कि यह सब तो बहुत अच्छा है। अल्लाह की इबादत तो अच्छी बात है। कहीं भी आतंकवाद की तालीम नहीं दी जा रही। फिर कुछ वहाबी आतंकवादी क्यों बन रहे हैं? आईए, जवाब ढूंढते हैं।

पहले देखें मुसलमान किसे अल्लाह कहते हैं। अल्लाह कोई मुसलमानों के खुदा का नाम नहीं है। अल्लाह दो शब्दों से बना हैः ‘अल’ और ‘लाह’। ‘अल’ अंग्रेजी के शब्द ‘The’ के अर्थ में प्रयोग होता है और ‘लाह’ के अर्थ खुदा के हैं। इस प्रकार शब्द ‘अल्लाह’ का अर्थ है ‘The God’। अर्थात यदि इस सृष्टि का कोई एक खुदा रचियता है तो वही ‘The God’ अर्थात अल्लाह है। अर्थात यदि हिन्दूओं की किताबें किसी एक खुदा की बात करती हैं तो वही मुसलमानों का खुदा है। यदि ईसाईयों या यहूदियों की किताबें किसी एक खुदा को मानती हैं तो वही मुसलमानों का खुदा है। परन्तु यदि कोई एक से अधिक खुदाओं को मानता है तो वह मुसलमानों का खुदा नहीं बल्कि ‘ला इलाहा इल्लललाह’ का अर्थ है ‘कोई खुदा नहीं सिवाय उस एक खुदा के’ अर्थात ‘कोई खुदा नहीं सिवाय अल्लाह के’ जो सब एक खुदा में विश्वास रखने वालों का खुदा है और उसी के लिए सारी बंदगी और सारी इबादत है।

आईए अब देखें कि नमाज क्या है। हर मुसलमान के लिए आवश्यक है कि वह दिन में पांच बार नमाज पढ़े। नमाज अल्लाह अर्थात इस सृष्टि के एक खुदा के आगे दिन में पांच बार सिर झुकाने का नाम है। नमाज अपने को अल्लाह का बंदा मानने की minimum requirement है। मुसलमानों में जो नमाज नहीं पढ़ता वह जैसे अल्लाह की बंदगी की minimum requirement को पूरा नहीं करता। जो इतना भी नहीं करता वह पैगम्बर मौहम्मद की अमन, भाईचारे, दूसरों की भलाई, तमाम इंसानों की समानता, मां बाप का अहतराम, जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने, औरतों की इज्जत और इस प्रकार की दूसरी शिक्षाओं को मुसलमान होते हुए क्यों मानेगा। दूसरे शब्दों में कहूं कि हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति देश के कानून को तो मान रहा हो, लेकिन जो अल्लाह का बंदा होने की minimum requirement को पूरा नहीं कर रहा वह भले ही अपने को मुसलमान कह रहा हो, क्योंकर अल्लाह और रसूल की दी शिक्षा पर अमल करेगा। फिर प्रश्न उठता है, यदि ऐसे लोगों को नमाज की ओर आकर्षित किया जा रहा है तो यह तो अच्छा है, इसका आतंकवाद से क्या सम्बंध?

अधिकतर दावा करने वाले इस्लाम का जो सब से अहम नियम है उसको नजरअंदाज करते हैं। दावा करने के नाम पर जो लोग घूम रहे हैं उनमें बहुतेरे स्वयं इस्लाम को और उसकी शिक्षा को नहीं पहचानते। उदाहरण यह कि इस्लाम हज पर जाते समय भी कहता है कि हज पर जब ही जाओ जब तुम्हारे पास सफर का धन है और तुम अपने पीछे छोड़कर जा रहे परिवार वालों के लिए इतना छोड़ो कि उनका तुम्हारी अनुपस्थिति में अच्छे से गुजारा हो सके। परन्तु कई दावा के नाम पर घूमने वाले मुसलमान यह भी नहीं समझते कि वह 40 दिन या 6 महिने के लिए घर छोड़ निकल जाएंगे तो उनके कामकाज का क्या होगी, बीवी बच्चों का गुजारा कैसे चलेगा?
इस्लाम कहता है कि ईश्वर का एक होना रटाने या बताने की बात नहीं है। बल्कि यह आवश्यक है कि मुसलमान अकल से जाने और समझे कि एक ईश्वर है जो सारी सृष्टि का रचियता है, अदल और इंसाफ करता है और हम उसके ही बंदे हैं। फिर अकल से माने कि क्योंकि अल्लाह ने इस सृष्टि को पैदा किया और इंसानों को पैदा किया तो आवश्यक था कि वही इंसानों को बताए कि उन्हें क्यों पैदा किया गया। इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि हम अकल से मानें और समझें कि ईश्वर ने हमारी हिदायत और राहनुमाई के लिए कुछ ऐसे लोग भेजे होंगे जिनका उससे सम्बंध होगा। ऐसे लोगों के लिए गीता ने क्हा कि उनकी जड़ें स्वर्ग में होंगी और शाखें अर्थात टहनियां धरती पर होंगी। यह अवतार या पैगम्बर हैं जो हर जमाने में और विभिन्न स्थानों पर अवतरित होते रहे ताकि जुलमत अर्थात तमस अर्थात शैतानी ताकतों द्वारा फैलाई जा रही गुमराही से हमें निजात दिला सकें और खुदा तक पहुंचने के उस मार्ग से अवगत करा सकें जो हमारे लिए अगले जन्म में बेहतरी लाएगा।

मुसलमान होने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह अकल से जानें और मानें की इस दुनिया में आने वाले अनेक अवतारों के बाद आखिर में अल्लाह ने पैगम्बर मौहम्मद को भेजा जो तमाम सृष्टि के लिए रहमत और अमन का पैगाम लाए थे। उन्होंने मार्ग दिखाया जिसपर चल कर हमारे लिए बेहतरी है और न चलने पर हमारे लिए नुकसान है। मुसलमानों के कुछ फिरके इसको दीन की जड़ें मानते हैं और कहते हैं कि इसको तोते के समान रटाना नहीं है बल्कि अकल से मानना और समझना है।

आईए देखें कि मुसलमानों के दूसरे फिरकों में जैसे बरेलवी, शिया, आदि जिन में दावा का यह सिस्टम मौजूद नहीं है वहां क्या होता है। बरेलवी और शिया भी नमाज पढ़ते हैं परन्तु यदि उनमें कोई नमाज नहीं पढ़ रहा उसको उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है क्योंकि माना जाता है कि नमाज, रोजा, आदि इंसान का निजी मामला है और यदि वह नमाज पढ़ रहा है तो अच्छा और यदि नहीं पढ़ रहा तो यह उसका अपना मामला है जिसके लिए उसे जवाबदेह होना पड़ेगा।

परन्तु दावा का सिस्टम क्या कर रहा है। जो मुसलमान नमाज नहीं पढ़ रहे थे अर्थात वह जो एक ईश्वर को पहचानने और समझने की अकल भी नहीं रखते थे उनको अकल की बुनियाद पर समझाने के स्थान पर केवल नमाज पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनको समझाया गया कि नमाज पढ़ो और कुरान पढ़ो तो तुम जन्नत में अर्थात स्वर्ग में जाओगे। अर्थात जो नमाज ईश्वर की बंदगी की minimum requirement थी वह end means बन गई। अर्थात उन्होंने यह समझा कि नमाज ही काफी है। पैगम्बर मौहम्मद के बारे में उन्हें बताया गया कि वह हमारे जैसे ही आम मनुष्य थे जिनके माध्यम से ईश्वर ने अपना पैगाम दिया। बताया गया कि सारी दुनिया हमारी दुश्मन है। और इस ईश्वर के मार्ग पर मर जाने को शहादत बताया गया।

आईए फिर देखें नमाज क्या है। जैसा क्हा गया कि नमाज दिन में पांच बार ईश्वर के आगे अपनी बंदगी साबित करने की minimum requirement है। परन्तु हुआ क्या कि वह मुसलमान जो नमाज नहीं पढ़ता था अर्थात ईश्वर को ढंग से पहचान भी नहीं पाया था उसको मस्जिद में खींच लाया गया ताकि नमाज पढ़े और इस कारण स्वर्ग में जाए।

परन्तु यह भूल गए कि केवल नमाज पढ़ने या कुरान रट लेने से स्वर्ग नहीं मिलता। नमाज तो दिन में पांच बार ईश्वर को याद करने की प्रैक्टिस है। हिन्दुओं में भी एक समय था जब दिन में पांच बार इबादत करने का रिवाज था। इसका मकसद था कि विभिन्न इबादतों के दरमियान जब हम दुनिया के काम करें तो अल्लाह को याद रखें। हर काम जो अल्लाह को याद करके किया जाए वह इबादत है। पैगम्बर मौहम्मद ने यह नहीं कहा कि नमाज पढ़ लो काफी है बल्कि कहा कि यदि तुम देखना चाहते हो कि तुम्हारी नमाज कुबूल हुई तो यह देखो कि नमाज के बाद तुम में कोई अच्छाई पैदा हुई कि नहीं। अच्छाई तब पैदा होगी जब रूहानियत अर्थात नूरानियत में बढ़ौतरी होगी और रूहानियत अर्थात नूरानियत में बढ़ौतरी तब होगी जब आत्मा का परमात्मा से रिश्ता बनेगा।

पैगम्बर मौहम्मद चाहते हैं कि न केवल दिन में पांच बार बल्कि उन पांच नमाजों के दरमियान मुसलमान अपनी आत्मा का परमात्मा से रिश्ता बनाए रखे। अर्थात गरीब की सहायता करे तो किसी और कारण से नहीं बल्कि ईश्वर की खुशनूदी के लिए, जुल्म होते देखे तो किसी और कारण से नहीं ईश्वर की खुशनूदी के लिए मजलूम का साथ दे, शांति स्थापित करने के लिए काम करे कि अल्लाह मारकाट और खूनखराबा को बुरा समझता है, औरतों की इज्जत करे तो इस नियत से अल्लाह ने औरतों के बराबर हुकूक बताए हैं, यहां तक कि दौलत कमाए तो इस नियत से कि अल्लाह ने केवल जाएज धन कमाने की इजाजत दी है ताकि औलाद की सही तरबियत की जा सके। हर काम जो अल्लाह की याद को बनाए रखकर किया जाएगा वह इबादत बन जाएगा। इंसान रूहानियत अर्थात नूरानियत की राह पर आगे बढ़ता जाएगा और आत्मा परमात्मा से करीब होती जाएगी।

परन्तु दावा करने वाले यह सब कुछ नहीं बताते। नमाज पढ़ो तो जन्नत मिलेगी, रोजा रखो, कुरान पढ़ो, और जिहाद करो। जो अकल से अल्लाह को नहीं समझ पाए और खींच कर मस्जिदों में लाए गए वे जिहाद के lofty concept को क्या समझेंगे? ऐसे अकल से पैदल मुसलमानों को जिहाद के नाम पर इस्तेमाल करना आसान है। इनमें से कुछ बहक कर आतंकवादी संगठनों में शामिल हो जाते हैं। यही हो रहा है। दूसरे फिरके कम अकल लोगों को जो इतनी अकल भी नहीं रखते थे कि अपने आसपास की चीजों को देखकर ईश्वर को पहचानें और समझें और अपनी बंदगी के सबूत के रूप में उसकी इबादत करें, ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ देते हैं। जब्कि दावा करके हम ऐसे कमअकल लोगों को जो अकल के नहीं बल्कि केवल रिवायती धर्म के पाबंद बन गए हैं मजहबी लिबास पहना देते हैं। अकल के बिना दीन है ही नहीं।

परन्तु अफसोस की बात है कि हर समय में इस्लाम के नाम पर राज करने वाली हुकूमतों ने मुसलमानों को अकल से दूर रखा ताकि उनकी हुकूमतें कायम रहें और मुसलमानों को धर्म के नाम पर जिस ओर चाहें बहकाया जा सके। मुआविया ने एक लड़ाई में इमाम अली से कहा था कि मैं ऐसी फौज लड़ने को लाया हूं जो उंट और उंटनी में अन्तर नहीं समझते। ऐसे ही कमअकल लोगों को कुछ अकलमंद लोग मजहब के नाम पर बहकाते रहते हैं और यह अकल के अंधे सही मजहब की समझ न होने के कारण बहकाए में आ जाते हैं।

यही कारण है कि पैगम्बर मौहम्मद ने कई सौ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि आखिरी दौर में जो ख्वारिज पैदा होंगे वह नमाजें ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हें उनकी नमाजों के सामने अपनी नमाजें कम दिखाई देंगी, कुरान ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हें उनके कुरान के सामने अपने कुरान का पढ़ना कम दिखाई देखा, लेकिन इनकी नमाजें और कुरान इनके गले से नीचे नहीं उतरेगा। यह धर्म के नाम पर भले ही लड़ रहे हों, परन्तु यह इतनी अकल नहीं रखते कि धर्म को समझ पाएं। इनके बारे में भविष्यवाणी है कि यह बिना कारण के खून बहाएंगे। जो इनको कत्ल करेगा उसकी भी बेहतरी और जो इनके हाथ मारा जाएगा उसकी भी बेहतरी। पैगम्बर मौहम्मद ने इनको जहन्नम अर्थात नर्क का कुत्ता क्हा है। इनका पैगम्बर मौहम्मद के बताए इस्लाम से कोई रिश्ता नाता नहीं।

यदि आप समझते हैं कि यही मुख्य कारण है तो एक और कारण भी है। पैगम्बर मौहम्मद ने अपनी जिन्दगी में कई बार मुसलमानों से कहा था कि मैं अपने बाद तुम्हारे बीच दो चीजें छोड़ कर जाउंगा, एक कुरान और दूसरे अहलेबैत। यदि इनसे जुड़े रहोगे तो कभी गुमराह न होगे। कुरान ने अहलेबैत को ईश्वरीय नूर बताया और गारंटी ली कि यह हर बुराई से पाक हैं। पैगम्बर मौहम्मद ने बताया कि अहलेबैत में वह नूर है जो सबसे पहले अल्लाह ने पैदा किया था। इन्हीं कारणों से हम साबित करते हैं कि अहलेबैत ही दिव्य अर्थात नूर से बने देवता हैं जिनके मानव रूप में धरती पर जन्म लेने की भविष्यवाणी वेदों आदि में की गई थी। परन्तु मुसलमानों ने न केवल अहलेबैत को छोड़ दिया बल्कि जब वे मानव शरीर में मौजूद थे तो उनको यातनाएं दी, कारावास में रखा या मार डाला। आज मुसलमानों में केवल वहाबी ही वह फिरका है जो अहलेबैत कौन है जानता ही नहीं हालांकि कुरान ने उन के बारे में बताया और पैगम्बर मौहम्मद ने बार बार पहचनवाया कि वे कौन हैं। यही गुमराही का मुख्य कारण है।

वहाबियों से कलामः क्यों सारे आतंकवादी वहाबी होते हैं हालांकि सारे वहाबी आतंकवादी नहीं होते


मुसलमानों के जिस फिरके को आमतौर पर वहाबी कहा जाता है आज मेरा कलाम उस फिरके से है। गौर फिक्र की दावत है कि क्यों दुनिया में जहां भी आतंकवादी तंजीमें लड़ रही हैं वह वहाबी फिक्र ही रखती हैं? जब्कि यह भी हकीकत है कि अधिकतर वहाबी अमन पसन्द और अल्लाह से डरने वाले होते हैं।

 

मैंने जितना वहाबियों को देखा उन को खुदा से डरने वाला और अमन पसन्द पाया। बल्कि उनको नमाज रोजे का बाकी मुसलमानों से ज्यादा पाबन्द पाया। फिर क्यों ऐसा है कि चाहे तालीबान हों, अलकाएदा या जैशे मौहम्मद हों, बोको हराम हों या आईसिस हों, सब के सब वहाबी फिक्र को ही मानते हैं। यदि किसी के पास जवाब हो तो बताए?

 

मैं जितना समझा और मैं गलत भी हो सकता हूं वो आप के सामने पेश कर रहा हूं। जरा बताईए कि क्या यही कारण है? मुझे लगता है कि इसकी जड़ दावा के उस सिस्टम में है जो बजाहिर देखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन उस सिस्टम में कहीं कहीं कोई कमी है जिसको दूर करना जरूरी है अगर हम वाकई आतंकवाद का खात्मा चाहते हैं।

 

पहले देखते हैं कि दावा सिस्टम क्या है? इस सिस्टम के तहत दीन के पाबन्द लोग 40 दिन के लिए अपने काम काज से छुट्टी लेकर किसी इलाके में जाते हैं और वहां के मुसलमानों को नमाज पढ़ने, मस्जिद में आने और रोजा रखने को कहते हैं। जो मुसलमान मस्जिद में नहीं आते उनसे चार पांच लोग बात करते हैं और उनसे कहते हैं कि दुनिया से अधिक मरने के बाद के जीवन की चिंता करें और अगर वह मरने के बाद जन्नत अर्थात स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो उन्हें नमाज, रोजा आदि शुरू करना होगा। जब तक वह व्यक्ति मस्जिद में आना शुरू नहीं करता, उसको बुलाने की कोशिश करते हैं, और मस्जिद में उसे दीन के बारे में बताया जाता है, अगली दुनिया सुधारने के लिए इस दुनिया में इबादत करने पर जोर दिया जाता है और धीरे धीरे सुन्नत पर अमल, जैसे दाढ़ी रखना, टखनों से उंचा पजामा पहना, आदि के लिए प्रेरित किया जाता है।

 

लेकिन आप कहेंगे कि यह सब तो बहुत अच्छा है। अल्लाह की इबादत तो अच्छी बात है। कहीं भी आतंकवाद की तालीम नहीं दी जा रही। फिर कुछ वहाबी आतंकवादी क्यों बन रहे हैं? आईए, जवाब ढूंढते हैं।

 

पहले देखें मुसलमान किसे अल्लाह कहते हैं। अल्लाह कोई मुसलमानों के खुदा का नाम नहीं है। अल्लाह दो शब्दों से बना हैःअलऔरलाहअलअंग्रेजी के शब्द ‘The’ के अर्थ में प्रयोग होता है औरलाहके अर्थ खुदा के हैं। इस प्रकार शब्दअल्लाहका अर्थ हैThe God अर्थात यदि इस सृष्टि का कोई एक खुदा रचियता है तो वहीThe Godअर्थात अल्लाह है। अर्थात यदि हिन्दूओं की किताबें किसी एक खुदा की बात करती हैं तो वही मुसलमानों का खुदा है। यदि ईसाईयों या यहूदियों की किताबें किसी एक खुदा को मानती हैं तो वही मुसलमानों का खुदा है। परन्तु यदि कोई एक से अधिक खुदाओं को मानता है तो वह मुसलमानों का खुदा नहीं बल्किला इलाहा इल्लललाहका अर्थ हैकोई खुदा नहीं सिवाय उस एक खुदा केअर्थातकोई खुदा नहीं सिवाय अल्लाह केजो सब एक खुदा में विश्वास रखने वालों का खुदा है और उसी के लिए सारी बंदगी और सारी इबादत है।

 

आईए अब देखें कि नमाज क्या है। हर मुसलमान के लिए आवश्यक है कि वह दिन में पांच बार नमाज पढ़े। नमाज अल्लाह अर्थात इस सृष्टि के एक खुदा के आगे दिन में पांच बार सिर झुकाने का नाम है। नमाज अपने को अल्लाह का बंदा मानने की minimum requirement है। मुसलमानों में जो नमाज नहीं पढ़ता वह जैसे अल्लाह की बंदगी की minimum requirement को पूरा नहीं करता। जो इतना भी नहीं करता वह पैगम्बर मौहम्मद की अमन, भाईचारे, दूसरों की भलाई, तमाम इंसानों की समानता, मां बाप का अहतराम, जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने, औरतों की इज्जत और इस प्रकार की दूसरी शिक्षाओं को मुसलमान होते हुए क्यों मानेगा। दूसरे शब्दों में कहूं कि हो सकता है कि ऐसा व्यक्ति देश के कानून को तो मान रहा हो, लेकिन जो अल्लाह का बंदा होने की minimum requirement को पूरा नहीं कर रहा वह भले ही अपने को मुसलमान कह रहा हो, क्योंकर अल्लाह और रसूल की दी शिक्षा पर अमल करेगा। फिर प्रश्न उठता है, यदि ऐसे लोगों को नमाज की ओर आकर्षित किया जा रहा है तो यह तो अच्छा है, इसका आतंकवाद से क्या सम्बंध?

 

अधिकतर दावा करने वाले इस्लाम का जो सब से अहम नियम है उसको नजरअंदाज करते हैं। दावा करने के नाम पर जो लोग घूम रहे हैं उनमें बहुतेरे स्वयं इस्लाम को और उसकी शिक्षा को नहीं पहचानते। उदाहरण यह कि इस्लाम हज पर जाते समय भी कहता है कि हज पर जब ही जाओ जब तुम्हारे पास सफर का धन है और तुम अपने पीछे छोड़कर जा रहे परिवार वालों के लिए इतना छोड़ो कि उनका तुम्हारी अनुपस्थिति में अच्छे से गुजारा हो सके। परन्तु कई दावा के नाम पर घूमने वाले मुसलमान यह भी नहीं समझते कि वह 40 दिन या 6 महिने के लिए घर छोड़ निकल जाएंगे तो उनके कामकाज का क्या होगी, बीवी बच्चों का गुजारा कैसे चलेगा?

 

इस्लाम कहता है कि ईश्वर का एक होना रटाने या बताने की बात नहीं है। बल्कि यह आवश्यक है कि मुसलमान अकल से जाने और समझे कि एक ईश्वर है जो सारी सृष्टि का रचियता है, अदल और इंसाफ करता है और हम उसके ही बंदे हैं। फिर अकल से माने कि क्योंकि अल्लाह ने इस सृष्टि को पैदा किया और इंसानों को पैदा किया तो आवश्यक था कि वही इंसानों को बताए कि उन्हें क्यों पैदा किया गया। इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि हम अकल से मानें और समझें कि ईश्वर ने हमारी हिदायत और राहनुमाई के लिए कुछ ऐसे लोग भेजे होंगे जिनका उससे सम्बंध होगा। ऐसे लोगों के लिए गीता ने क्हा कि उनकी जड़ें स्वर्ग में होंगी और शाखें अर्थात टहनियां धरती पर होंगी। यह अवतार या पैगम्बर हैं जो हर जमाने में और विभिन्न स्थानों पर अवतरित होते रहे ताकि जुलमत अर्थात तमस अर्थात शैतानी ताकतों द्वारा फैलाई जा रही गुमराही से हमें निजात दिला सकें और खुदा तक पहुंचने के उस मार्ग से अवगत करा सकें जो हमारे लिए अगले जन्म में बेहतरी लाएगा। मुसलमान होने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह अकल से जानें और मानें की इस दुनिया में आने वाले अनेक अवतारों के बाद आखिर में अल्लाह ने पैगम्बर मौहम्मद को भेजा जो तमाम सृष्टि के लिए रहमत और अमन का पैगाम लाए थे। उन्होंने मार्ग दिखाया जिसपर चल कर हमारे लिए बेहतरी है और चलने पर हमारे लिए नुकसान है। मुसलमानों के कुछ फिरके इसको दीन की जड़ें मानते हैं और कहते हैं कि इसको तोते के समान रटाना नहीं है बल्कि अकल से मानना और समझना है।

 

आईए देखें कि मुसलमानों के दूसरे फिरकों में जैसे बरेलवी, शिया, आदि जिन में दावा का यह सिस्टम मौजूद नहीं है वहां क्या होता है। बरेलवी और शिया भी नमाज पढ़ते हैं परन्तु यदि उनमें कोई नमाज नहीं पढ़ रहा उसको उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है क्योंकि माना जाता है कि नमाज, रोजा, आदि इंसान का निजी मामला है और यदि वह नमाज पढ़ रहा है तो अच्छा और यदि नहीं पढ़ रहा तो यह उसका अपना मामला है जिसके लिए उसे जवाबदेह होना पड़ेगा।

 

परन्तु दावा का सिस्टम क्या कर रहा है। जो मुसलमान नमाज नहीं पढ़ रहे थे अर्थात वह जो एक ईश्वर को पहचानने और समझने की अकल भी नहीं रखते थे उनको अकल की बुनियाद पर समझाने के स्थान पर केवल नमाज पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनको समझाया गया कि नमाज पढ़ो और कुरान पढ़ो तो तुम जन्नत में अर्थात स्वर्ग में जाओगे। अर्थात जो नमाज ईश्वर की बंदगी की minimum requirement थी वह end means बन गई। अर्थात उन्होंने यह समझा कि नमाज ही काफी है। पैगम्बर मौहम्मद के बारे में उन्हें बताया गया कि वह हमारे जैसे ही आम मनुष्य थे जिनके माध्यम से ईश्वर ने अपना पैगाम दिया। बताया गया कि सारी दुनिया हमारी दुश्मन है। और इस ईश्वर के मार्ग पर मर जाने को शहादत बताया गया।

 

आईए फिर देखें नमाज क्या है। जैसा क्हा गया कि नमाज दिन में पांच बार ईश्वर के आगे अपनी बंदगी साबित करने की minimum requirement है। परन्तु हुआ क्या कि वह मुसलमान जो नमाज नहीं पढ़ता था अर्थात ईश्वर को ढंग से पहचान भी नहीं पाया था उसको मस्जिद में खींच लाया गया ताकि नमाज पढ़े और इस कारण स्वर्ग में जाए।

 

परन्तु यह भूल गए कि केवल नमाज पढ़ने या कुरान रट लेने से स्वर्ग नहीं मिलता। नमाज तो दिन में पांच बार ईश्वर को याद करने की प्रैक्टिस है। हिन्दुओं में भी एक समय था जब दिन में पांच बार इबादत करने का रिवाज था। इसका मकसद था कि विभिन्न इबादतों के दरमियान जब हम दुनिया के काम करें तो अल्लाह को याद रखें। हर काम जो अल्लाह को याद करके किया जाए वह इबादत है। पैगम्बर मौहम्मद ने यह नहीं कहा कि नमाज पढ़ लो काफी है बल्कि कहा कि यदि तुम देखना चाहते हो कि तुम्हारी नमाज कुबूल हुई तो यह देखो कि नमाज के बाद तुम में कोई अच्छाई पैदा हुई कि नहीं। अच्छाई तब पैदा होगी जब रूहानियत अर्थात नूरानियत में बढ़ौतरी होगी और रूहानियत अर्थात नूरानियत में बढ़ौतरी तब होगी जब आत्मा का परमात्मा से रिश्ता बनेगा।

 

पैगम्बर मौहम्मद चाहते हैं कि केवल दिन में पांच बार बल्कि उन पांच नमाजों के दरमियान मुसलमान अपनी आत्मा का परमात्मा से रिश्ता बनाए रखे। अर्थात गरीब की सहायता करे तो किसी और कारण से नहीं बल्कि ईश्वर की खुशनूदी के लिए, जुल्म होते देखे तो किसी और कारण से नहीं ईश्वर की खुशनूदी के लिए मजलूम का साथ दे, शांति स्थापित करने के लिए काम करे कि अल्लाह मारकाट और खूनखराबा को बुरा समझता है, औरतों की इज्जत करे तो इस नियत से अल्लाह ने औरतों के बराबर हुकूक बताए हैं, यहां तक कि दौलत कमाए तो इस नियत से कि अल्लाह ने केवल जाएज धन कमाने की इजाजत दी है ताकि औलाद की सही तरबियत की जा सके। हर काम जो अल्लाह की याद को बनाए रखकर किया जाएगा वह इबादत बन जाएगा। इंसान रूहानियत अर्थात नूरानियत की राह पर आगे बढ़ता जाएगा और आत्मा परमात्मा से करीब होती जाएगी।

 

परन्तु दावा करने वाले यह सब कुछ नहीं बताते। नमाज पढ़ो तो जन्नत मिलेगी, रोजा रखो, कुरान पढ़ो, और जिहाद करो। जो अकल से अल्लाह को नहीं समझ पाए और खींच कर मस्जिदों में लाए गए वे जिहाद के lofty concept को क्या समझेंगे? ऐसे अकल से पैदल मुसलमानों को जिहाद के नाम पर इस्तेमाल करना आसान है। इनमें से कुछ बहक कर आतंकवादी संगठनों में शामिल हो जाते हैं। यही हो रहा है। दूसरे फिरके कम अकल लोगों को जो इतनी अकल भी नहीं रखते थे कि अपने आसपास की चीजों को देखकर ईश्वर को पहचानें और समझें और अपनी बंदगी के सबूत के रूप में उसकी इबादत करें, ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ देते हैं। जब्कि दावा करके हम ऐसे कमअकल लोगों को जो अकल के नहीं बल्कि केवल रिवायती धर्म के पाबंद बन गए हैं मजहबी लिबास पहना देते हैं। अकल के बिना दीन है ही नहीं।

 

परन्तु अफसोस की बात है कि हर समय में इस्लाम के नाम पर राज करने वाली हुकूमतों ने मुसलमानों को अकल से दूर रखा ताकि उनकी हुकूमतें कायम रहें और मुसलमानों को धर्म के नाम पर जिस ओर चाहें बहकाया जा सके। मुआविया ने एक लड़ाई में इमाम अली से कहा था कि मैं ऐसी फौज लड़ने को लाया हूं जो उंट और उंटनी में अन्तर नहीं समझते। ऐसे ही कमअकल लोगों को कुछ अकलमंद लोग मजहब के नाम पर बहकाते रहते हैं और यह अकल के अंधे सही मजहब की समझ होने के कारण बहकाए में जाते हैं।

 

यही कारण है कि पैगम्बर मौहम्मद ने कई सौ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि आखिरी दौर में जो ख्वारिज पैदा होंगे वह नमाजें ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हें उनकी नमाजों के सामने अपनी नमाजें कम दिखाई देंगी, कुरान ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हें उनके कुरान के सामने अपने कुरान का पढ़ना कम दिखाई देखा, लेकिन इनकी नमाजें और कुरान इनके गले से नीचे नहीं उतरेगा। यह धर्म के नाम पर भले ही लड़ रहे हों, परन्तु यह इतनी अकल नहीं रखते कि धर्म को समझ पाएं। इनके बारे में भविष्यवाणी है कि यह बिना कारण के खून बहाएंगे। जो इनको कत्ल करेगा उसकी भी बेहतरी और जो इनके हाथ मारा जाएगा उसकी भी बेहतरी। पैगम्बर मौहम्मद ने इनको जहन्नम अर्थात नर्क का कुत्ता क्हा है। इनका पैगम्बर मौहम्मद के बताए इस्लाम से कोई रिश्ता नाता नहीं।

 

यदि आप समझते हैं कि यही मुख्य कारण है तो एक और कारण भी है। पैगम्बर मौहम्मद ने अपनी जिन्दगी में कई बार मुसलमानों से कहा था कि मैं अपने बाद तुम्हारे बीच दो चीजें छोड़ कर जाउंगा, एक कुरान और दूसरे अहलेबैत। यदि इनसे जुड़े रहोगे तो कभी गुमराह होगे। कुरान ने अहलेबैत को ईश्वरीय नूर बताया और गारंटी ली कि यह हर बुराई से पाक हैं। पैगम्बर मौहम्मद ने बताया कि अहलेबैत में वह नूर है जो सबसे पहले अल्लाह ने पैदा किया था। इन्हीं कारणों से हम साबित करते हैं कि अहलेबैत ही दिव्य अर्थात नूर से बने देवता हैं जिनके मानव रूप में धरती पर जन्म लेने की भविष्यवाणी वेदों आदि में की गई थी। परन्तु मुसलमानों ने केवल अहलेबैत को छोड़ दिया बल्कि जब वे मानव शरीर में मौजूद थे तो उनको यातनाएं दी, कारावास में रखा या मार डाला। आज मुसलमानों में केवल वहाबी ही वह फिरका है जो अहलेबैत कौन है जानता ही नहीं हालांकि कुरान ने उन के बारे में बताया और पैगम्बर मौहम्मद ने बार बार पहचनवाया कि वे कौन हैं। यही गुमराही का मुख्य कारण है।