पंडित जी को नमस्कार। बात शुरू करने से पहले बता देना चाहता हूं कि मैं मौहम्मद अलवी हूं। आप इस्लाम के सम्बंध में जो विचार रखते हैं उससे पता चलता है कि आप ने ज्ञान प्राप्त किया है। मैं केवल ईश्वर के मार्ग का छोटा सा विद्यार्थी हूं। मैं अकल को सर्वोप्रिय रखकर बात करता हूं इसलिए आवश्यक नहीं कि जो अधिकतर मुसलमान मान रहे हों, मैं भी उसी को मान रहा हूं। यह भी आवश्यक नहीं कि मैंने वेदों और गीता आदि को वैसे ही समझा हो जैसा आपने। मैं ने ईश्वर के मार्ग को अपनी अकल से समझने की कोशिश की है और इस निश्कर्ष पर पहुंचा हूं कि ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग एक ही है, जिसको समय समय पर ईश्वर के दूत पहुंचाते रहे। यह तथ्य गीता पढ़ने से साफ हो जाता है जब परमात्मा कहता है कि जब जब धरती पर बुराई बढ़ जाती है तब तब मैं अवतरित होता हूं।
यहीं पर मुझ में और आप में अन्तर है। आप मानते हैं कि वेदिक धर्म सब से अच्छा है। मैं मानता हूं कि वेदिक धर्म सब से अच्छा है, यह तो सही है लेकिन वेदिक धर्म को समझने में ही लोग गल्ती कर रहे थे तो कृष्ण को आना पड़ा। कृष्ण से पहले राम थे पर कृष्ण के समय तक अधिकांश लोग राम की असली शिक्षा को भुला चुके थे। कृष्ण को आए भी कम से कम 2500 वर्ष गुजर चुके हैं। कृष्ण के बाद लोगों ने कृष्ण की दी शिक्षा को भी भुला दिया। तब बुद्ध आए, दूसरे अवतार आए। जब उस समय वेदिक धर्म की समझ रखने वाले कम थे तो अब कितने होंगे।
कृष्ण की बात को आगे बढ़ाते हुए मैं यह मानता हूं कि परमात्मा ने और भी अवतार भेजे होंगे। यदि ईश्वर तमाम धरती का पालक है तो यह कैसे हो सकता है कि उसने केवल मथुरा के आस पास के लोगों के लिए तो रास्ता दिखाने वाला भेज दिया, परन्तु विश्व के दूसरे इलाके में रहने वालों को छोड़ दिया। परमात्मा ने किसी भी एक इलाके के लिए अपनी मौहब्बत का एलान नहीं किया बल्कि साफ कह रहा है कि जब जब विश्व में बुराई और ईश्वर से दूरी बढ़ जाती है तब तब मैं अवतरित होता हूं। चूंकि वेदिक धर्म 5000 साल पुराना है और भारतवर्ष के आसपास फला फूला, इस लिए हम इस इलाके में आने वाले अवतारों जैसे राम, कृष्ण और कुछ दूसरे ऋषियों को ही जानते हैं। पर यह नहीं हो सकता कि बुराई अमरीका, यूरोप, चीन, अफरीका में फैली हो और ईश्वर ने उसे दूर करने के लिए अवतार नहीं भेजे हों।
क्या यह हो सकता है कि मैं क्हूं कि माता अच्छी होती है परन्तु mother अच्छी नहीं होती। पिता अच्छा होता है परन्तु पिदर या father अच्छा नहीं होता। इसी प्रकार आप यदि मानते हैं कि अवतार ईश्वर की ओर से है और हम में ईश्वरीय मार्ग दिखाने के लिए भेजा गया तो आप को यह भी मानना पड़ेगा कि पैगम्बर ईश्वर की ओर से हैं और हम में ईश्वरीय मार्ग को दिखाने के लिए भेजा गया। क्यूंकि पैगम्बर के लिए जो मान्यता है वह यही तो है कि वह अलग अलग जमानों में अलग अलग स्थानों पर भेजे गये, उन सब ने एक ईश्वर का पाठ पढ़ाया, बुराई को दूर करने के लिए कोशिश की और इस कोशिश में असंख्य पैगम्बर मारे गये, उन पर जुल्म किए गए और उन्हें कैदखानों में जिन्दगी गुजारनी पड़ी। यदि आप मानते हैं कि अवतार अलग हैं और पैगम्बर अलग तो साबित कीजिए कि ईश्वर अलग है और अल्लाह और God अलग। हां यह जरूर है कि अवतार क्या है और पैगम्बर क्या, इसके बारे में हिन्दू और मुसलमान जो विचार रखते हैं वह भिन्न हो सकते हैं पर क्या आवश्यक है कि दोनों ने या किसी एक ने पूरी तरह से सच को समझा हो।
क्या हमारी अकल इतनी विस्तृत हो सकती है कि ईश्वर को पूरी तरह समझ लें। हम तो उन अंधों की तरह हैं जिन को हाथी के सामने खड़ा किया गया तो जिस ने हाथी की दुम थामी उसने क्हा कि हाथी रस्सी की तरह होता है, जिसने पैर पकड़ा उसने क्हा कि स्तंभ की तरह होता है और जिसने पेट पकड़ा उसने क्हा कि छत समान होता है। क्या कोई भी गलत है? परन्तु सब गलत भी हैं? हम किस को सजा देने के हकदार हैं? इसी प्रकार ईश्वरीय मार्ग पर जो चल रहा है उसे चलने दें, हम किसी को बुरा कहने वाले कौन हैं? थोड़ा सा समय गुजरेगा फिर हम को पता भी नहीं होगा कि किस की आत्मा क्हां हैं। गीता की मानें तो क्या वे जो मुसलमानों का नरसंहार करते हैं उनकी आत्मा मुस्लिम घर में नहीं पैदा हो सकती? क्या यही बात मुसलमानों पर लागू नहीं होती। फिर क्या उनके हाथ में होगा कि वहां पैदा होने से अपने को बचा लें? फिर कहता हूं कि हर धर्म spiritual elevation की बात करता है और यह शैतानी या तमसिक ताकतें हैं जो इस प्रकार के झगड़ो में हम को डाल देती हैं जहां छोटी छोटी बातों पर हम एक दूसरे का तिरस्कार करने, मरने मारने पर तैयार हो जाते हैं। कृष्ण ने तमसिक क्हा तो कुरान ने जुलमत। दोनों के अर्थ एक हैं। पिता, पिदर और father का अन्तर है। समझने वाले समझ लेते हैं।
मैं यह मानता हूं कि ईश्वर एक है और उसके अवतारों द्वारा दिखाया मार्ग भी एक है। ईश्वर का मार्ग दिखाने हेतु अवतार समय समय पर आते रहे। वेदों में भारत में आए अवतारों का वर्णन है तो कुरआन में पश्चिम एशिया, पूर्वी अफरीका आदि का और ईसाईयों और यहूदियों की किताबों में यूरोप और पश्चिम एशिया का। कई ऐसे लोग मिलते हैं जिन की जीवनी पढ़ कर अंदाजा किया जा सकता है कि वे चीन में ईश्वर की ओर से अवतार रहे होंगे। अलग अलग समय में अलग अलग अवतार आए।
जब ईश्वर एक, उस तक पहुंचने का मार्ग एक, तो यह कैसे हो सकता है कि उसके भेजे गए अवतार अलग अलग पाठ पढ़ाएं। यहीं पर आप में और मुझ में मतभेद है। आप दूसरे धर्मों खास तौर पर इस्लाम का तिरस्कार करके साबित करना चाहते हैं कि हिन्दू धर्म सही है। मैं मानता हूं कि ईश्वर के मार्ग से विचलित होकर हमने धर्मों की दीवारें खड़ी कर ली हैं।
गीता और वेदों को मैं ने जितना पढ़ा है उससे साफ है कि कर्म और आत्मा का उत्थान प्राथमिकता होनी चाहिए जिस मार्ग पर चल कर हमारी आत्मा परमात्मा से करीब हो सकती है। परन्तु आज हम रूहानियत की बात नहीं करते। धर्म रस्म ओ रिवाज और रूढिवादी मान्यताओं में सिमट कर रह गया है। नारे लगाने को धर्म मानते हैं। अधिक पैसा खर्च कर देने को धर्म मानते हैं। अपनी दुनियावी ख्वाहिशों की पूर्ती और खासकर इंद्रियों को आनन्द पहुंचाने को धर्म समझते हैं। जो गलती जाकिर नायक जैसे लोगों ने की वह हम क्यों करें। क्योंकि किसी भी धर्म की शिक्षा दूसरे धर्म का तिरस्कार करके अपने धर्म की प्रधानता कायम करने का पाठ नहीं सिखाती। यह तो गीता के अनुसार तमसिक और रजसिक लोग हैं जो दुनिया के भोग में गर्क हैं और धर्म की आड़ में अपने निजी हितों को आगे बढ़ाते हैं। इनका ईश्वरीय मार्ग से क्या ताल्लुक?
ईश्वर के मार्ग पर चलने वाला अपनी इंद्रियों को अन्दर की ओर कर लेता है। मैं ने उपनिषद में पढ़ा है कि ईश्वर के मार्ग पर चलने वाला ऐसा होता है कि उसके आने से वातावरण पर जरा भी असर नहीं पड़ता। सत्य मार्ग पर चलने वाले को असत्य के मार्ग पर चलने वालों से क्या सरोकार? वह तो ईश्वर से करीब होने के मार्ग पर आगे ही बढ़ता जाता है। वह ऐसा होता है जैसे हवाई जहाज से जमीन दिखाई देती है। बड़े और छोटे, कई मंजिलों के और छोटे भवन, सब बराबर दिखाई देते हैं। जो ईश्वरीय मार्ग पर पीछे छुट गया, उसको स्वयं कोशिश करके आगे आना होगा। हम और आप अपनी चिंता करें। छोटी सी जिन्दगी है। इसके पश्चात हमारे कर्म का हिसाब होगा। कर्म के आधार पर आधारित होगा कि अगली जिन्दगी में आप क्हां होंगे और मैं क्हां? यही कारण है कि गीता कहती है कि जो ज्ञानी है वह ब्रहमण, कुत्ते और कुत्ता खाने वाले में अन्तर नहीं करता। फिर ज्ञानी हिन्दु और मुसलमान में क्यों अन्तर करे। अधिकांश हिन्दू और अधिकांश मुसलमान अपने अपने धर्म को सही से समझ ही नहीं पाए हैं। क्या वह जो ज्ञानी हैं वह भी वही करने लगें जो अज्ञानी कर रहे हैं?
आज तो ऐसे भी लोग हैं जो मुसलमानों की समानता पिल्ले से करते हैं। पर वह क्या कर सकते हैं कि इसके बाद भी गीता कह रही है कि जो ज्ञानी है वह ब्रहमण और कुत्ते में अन्तर नहीं करता। वह तो अपने ज्ञान में मस्त होता है। फिर क्यों हम अपने अपने अनुयायियों को ईश्वर भक्ति और सदाचार के मार्ग पर आगे बढ़ने का पाठ पढ़ाने की जगह किसी धर्म विशेष का तिरस्कार करने पर तुले हैं। वह भी उन लोगों को बुलाकर जो स्वयं सीमित ज्ञान रखते हैं।
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पहली बात मुसलमान कुरान को आसमान से अवतरित मानते हैं और कुरान की सारी बाते सच हैं इस बात पर बिना तथ्य और तर्क के पूर्ण विश्वास कर लेेेते हैं। दूसरी बात कुरान में कुछ ऐसी बातें हैं जो परधर्मी के लियें प्राणघातक सिद्ध हो चुकी हैं। कई सारे [विश्वास कीजियें बहुत सारे] मुसलमान अकारण हीं कुरान से उत्प्रेरित होकर गैर मुस्लिमों पर हमला कर चुके हैं और कर भी रहें हैं। हमारे सामने अनगिनत तथ्य और उदाहरण इस बात को सिद्ध करने के लियें मौजूद हैं। अत: धर्म के रूप में ईस्लामी कट्टरता सहनयोग्य नहीं हैं। हम सब की भलाई इसी में हैं कि इस्लाम को सामूहिक रूप से इतिहास की पुस्तकों में दफ्न कर दें, और एक उचित सहिष्णु धर्म की शरण में जायें जो अन्य सभी धर्मों को समान आदर देता हों।
ReplyDeleteभाई आप वेद पुनः पढ़े वेद में कहीं नहीँ लिखा की ईश्वर अवतार लेता है राम और कृष्ण सिर्फ महामानव थे औैर किसी भी अवतार का वर्णन वेदों में नहीँ है
ReplyDeleteभाई साहब पर आपके विचार अच्छे है हम तो बस ये चाहते है हर मनुष्य में परस्पर प्रेम हो और कोई किसी धर्म का विरोध न करे.
ReplyDeleteआपने सही तरीके से बात की इसलिए मैं आपसे प्रभावित हुआ और मुझे उतर देने की इच्छा हुई। अच्छा लगा कि आपने गीता और वेद की बाते की लेकिन मैं बता दू कि अन्य सम्प्रदाय और सनातन में मूलभूत फर्क है कुछ समानता है लेकिन ये सतही है जैसे अपने समूह में शांति रखना, चोरी नही करना आदि आदि कुछ समानताएं है लेकिन धर्म एक ही होता है और वो है कि जीवात्मा का परमात्मा में मिलन करवाना, जैसे मेरा हो या किसी और जीव का वास्तविक उदेश्य परमात्मा का अनुभव करना और उसको पाना। मतलब ये ही धर्म है सबका न कि हिन्दू मुस्लिम ईसाई, जैसे भूखे को भोजन करना और प्यासे को पानी पिलाना एक कर्तव्य है ये गौण धर्म कह सकते है इसी तरह जीवात्मा का धर्म है परमात्मा को पाना जबकि इस परमात्मा और जीवात्मा पर ही सब संप्रदायों में मतभेद है इसलिए ये सब एक हो ही नही सकते है। सबसे बड़ा भेद जो मुझे नजर आता है वो है पुनर्जन्म, ये केवल वैदिक धर्म में ही है और संप्रदायों में ऐसा कुछ नही है और एक बात अगर सभी सम्प्रदाय समान है तो फिर सबके ग्रंथो में समानता होती जबकि कुछ जगह को छोड़ कर सबमे विरोधाभास है और इसलिए मेरी नजर में बाकि सब सम्प्रदाय कल्पना से बढ़कर कुछ नही है। मुझे आपकी उत्सुकता और शालीनता देखकर और समझने का मन होता है लेकिन अभी इतना ही अगर आपको और अधिक जानना है तो आपका स्वागत है। एक दूसरे के हित में ही सबका हित है न कि बुराई से।
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