हे वेदों को आस्मानी किताब मानने वालों, जान लो कि वेदों में दी गई शिक्षा से हमें हर हर जमाने में भटकाने की कोशिश की गई। क्या तुम समझ रहे हो कि तुम भारत में हर जमाने में बड़े अच्छे दौर से गुजरे हो। यह जान लो कि वेदों की शिक्षा से हमें पथभ्रष्ट करने की कोशिश हर समय में लोग करते रहे। वह मुसलमान या ईसाई नहीं थे जिन्होंने वेदों की शिक्षा में खोट पैदा करने की चेष्टा की। नहीं, वह भी अपने को सनातन धर्मी कहते थे जो सनातन धर्मियों को भटका रहे थे। भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य का उदाहरण तुम्हारे सामने है। वे अपने समय के सबसे ज्ञानी और इज्जतदार समझे जाने वाले लोग थे परन्तु परमात्मा के दूत ने उन्हें कत्ल कर देना उचित समझा। यहां तक कह दिया कि यह सांस ले रहे हों या न ले रहे हों, यह मृत समान हैं। ऐसा केवल कृष्ण के जमाने में नहीं हुआ, ऐसा हर जमाने में हुआ। हर जमाने में कुछ ताकतें इसी ओर लगी रहीं कि वेदों के अस्ल ज्ञान से हमें भटका दें। सातवीं आठवीं शताब्दि में जब 1000 वर्ष के अंधकार के बाद वेदों को फिर से समझने की कोशिश की गई तो उस समय तक सनातन धर्मी वैदिक मार्ग से इतना भटक चुके थे कि वह जान भी नहीं पाए कि वेदों में क्या बात हो रही है। ऐसा मौहम्मद अलवी नहीं कह रहा, बल्कि मैत्री उपनिषद ऐसा कह रहा हैः
VII.8 says:
Now then, the hindrances to
knowledge, O King. This is indeed the source of the net of delusion, the
association of one who is worthy of heaven with those who are not worthy of
heaven, that is it. Though it is said there is a grove before them they cling to
a low shrub. Now there are some who are always hilarious, always abroad, always
begging, always making a living by handicraft. And others are who are beggars
in town, who perform sacrifices, for the unworthy, who are the disciples of
Sudras and who, though Sudras, are learned in the scriptures. And others there
are who are wicked, who wear their hair in a twisted knot, who are dancers, who
are mercenaries, traveling mendicants, actors, those who have been degraded in
the king’s service. And others there are who, for money, profess they can allay
(the evil influences) of Yaksas (sprites), Raksasas (ogres), ghosts, goblins,
devils, serpents, imps and the like. And others there are who, under false
pretexts, wear the read rope, earrings and skulls. And others there are who
love to distract the believers in the Veda by the jugglery of false arguments,
comparisons and paralogisms, with these one should not associate. These
creature, evidently, are thieves and unworthy of heaven. For this has it been
said: The world bewildered by doctrines that deny the self, by false
comparisons and proofs does not discern the difference between wisdom and
knowledge.
क्या मैत्री उपनिषद के इस अनुच्छेद से साफ नहीं होता कि सनातन धर्मी इतना भटक चुके थे कि बावजूद इसके कि धर्म के नाम पर अनेक काम किया करते थे, परन्तु स्वर्ग के मार्ग से बहुत दूर भटके हुए थे।
VII.9 says:
Verily, Brhaspati (the teacher of
the Devas) became Sukra (the teacher of the demons) and for the security of
Indra and for the destruction of demons created this ignorance. By this (they)
declare the inauspicious to be auspicious and the auspicious to be inauspicious.
They saw that there should be attention to the law which is destructive of the
(teachings of the Vedas) and the other scriptures. Therefore one should not
attend to this teaching. It is false. It is like a barren woman. Mere pleasure
is the fruit there of as also of one who has fallen from the proper course. It
should not be attempted. For this has it been said: Widely opposed and
divergent are these two, the one known as ignorance, and the other as
knowledge. I (Yama) think that Naciketas is desirous of obtaining knowledge and
many desires do not rend you. He who knows at the same time knowledge and
ignorance together, having crossed death by means of ignorance he wins the
immortal by knowledge. Those who are wrapped up in the midst of ignorance,
fancying themselves alone wise and learned, they wander, hard smitten and
deluded like blind men led by one who is himself blind.
The sage took them home to his
habitation, where he employed the chief of architects, Visvakarman, equal in
taste and skill to Brahma himself, to construct separate palaces of each of his
wives: he ordered him to provide each building with elegant couches and seats
and furnitures, and to attach to them gardens and groves, with reservoirs of
water, where the wild-duck and the swan should sport amidst beds of lotus
flowers.
इस ऋषि ने राजा से उसकी 50 बेटियां मांग लीं। वह इतना दौलतमंद था कि उसने 50 की 50 पत्नियों के लिए आलीशान महल बनवाए। परन्तु विष्णु पुराण का लेखक उस ऋषि का वर्णन जिन शब्दों में करता है उससे साफ दिखता है कि वह उस ऋषि की आन बान और शान में इतना मोहित था कि उसका कुकर्म उसे नहीं दिखा।जो लोग मुसलमानों पर लांछन लगाते हैं कि उनमें चार शादियां करने की इजाजत है बताएं कि यह ऋषि किस कानून के तहत 50-50 शादियां किया करते थे। आज भी आपके सामने ऐसे अनेक ऋषि और प्रख्यात साधुओं का उदाहरण मिल जाएगा जो किसी कन्या के साथ दुराचार यह कहकर करते हैं कि मैं इतना ताकतवर हूं कि तुम्हारे माता पिता को मरवा सकता हूं या मेरी उठबैठ मंत्रियों के साथ है इसलिए कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। यह धर्मगुरू इसी कारण तो यह कहते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि उनके पीछे असंख्य अंधे अनुयायी हैं जो यह जानते हुए भी गुरू ने गुनाह किया उसके पीछे आंख बंद करके चलते रहेंगे। उस समय में ऐसे अंधे अनुयायी राजा का राज्य तक छीन सकते थे और इसी कारण यह ऋषि अपनी मनमानी किया करते थे।
फिर वही प्रश्न उठता है कि गुरू कौन होना चाहिए? क्या गुरू केवल ऐसा हो जो बड़ी अच्छी बातें करता हो? उपरोक्त मैत्री उपनिषद का अनुच्छेद बताता है कि कई लोग ऐसे थे जो वेदों में बड़ी बड़ी बातें ढूंढ करके हमें वेदों की असली शिक्षा से पथभ्रष्ट किया करते थे। गुरू वही हो सकता है जिसका हमसे और परमात्मा दोनों से संबंध हो। जो परमात्मा क्या चाहता है वह हमें बताए और हमारी ओर से प्रमात्मा और ईश्वर से प्राथना करे। गुरू वही होना चाहिए जो स्वयं सत्य मार्ग पर ऐसे चले कि उससे बेहतर चलने वाला कोई न हो और जिस में किसी भी प्रकार की कोई बुराई न पाई जाए। परमात्मा ने देवताओं को हमारे मार्गदर्शक के रूप में इसी लिए मानव शरीर में भेजा ताकि हम उनके मार्ग पर चलें और जरा भी नहीं भटकें।
यह देवता सत्य मार्ग प्रशस्त करने आए थे इसलिए शैतानी ताकतों ने अपनी ताकत झोंक दी कि उस मार्ग को धूमिल किया जा सके। कौटिलया का धर्म से क्या संबंध? वह तो केवल एक चालाक मंत्री था जो हर कीमत पर राजा के राज्य का विस्तार चाहता थे। देखिए उसके बारे में अर्थशास्त्र क्या कहता हैः
In Kautilya’s Arthasastra (V.3.xiii.1),
we find the Pauranika, Suta and Magadha, as given a very high position in the
royal court like the Kartanika (foreteller), Naimittika (reader of omens),
Mauhurtika (astrologer) and others and allowed to draw a salary of 1000 Panas,
but they are said to have been employed for ‘giving wide publicity to the power
of the king to be associated with Devas throughout his territory,’ and in
foreign countries, for ‘spreading the news of Devas appearing before the
conqueror and of his having received weapons and treasure from heaven.’
खेद का विषय है कि आज भी हिन्दु उस अर्थशास्त्र को जो साम, दाम, दंड की बात करता है धार्मिक पुस्तक के रूप में देखते हैं। सत्य तो यह है कि आज के हिन्दु हर उस पुस्तक को जो हजार दो हजार वर्ष पुरानी है, उसको आदर से देखते हों। चाहे वह अपने समय के सबसे धर्म भ्रष्ट की ओर से लिखी गई कामासूत्र ही क्यों न हो।
ब्रहद अराणयका उपनिषद तो यहां तक कहता है कि उस समय के लोग, मृत्यु शय्या पर, अपने पुत्रों से कहते थे, कि वे जिनको आना है हमारे समय तो नहीं आए कि हम उनके कामों में उनकी मदद कर सकते। वह अपने पुत्रों से वसीयत करते थे कि जब वे देवतागण मानव शरीर में आएं तो उनके साथ रहें, यदि वे उनके पुत्रों के जीवनकाल में धरती पर आ जाएं।
क्या यही एक सबूत काफी नहीं यह साबित करने के लिए कि देवताओं को आने वाले समय में आना था। कोई सनातन धर्मी मुझे बताए कि वे आए तो कब आए?
एक और सबूत आप के सामने पेश है। मानना हो तो मानिए! डाक्टर राधाकृष्ण मुंडक उपनिषद की कमेंटरी में लिखते हैं कि जब यह देवता आएंगे और हम उनके लिए कुरबानियां देंगे तो यह हमें वहां ले जाएंगें जहां इन देवताओं का एक ईश्वर है अर्थात मोक्ष के मार्ग पर ले जाएंगे।
Read what I.2.5 of Mundaka Upanishad says:
Whosoever performs works, makes
offerings, when these are shining and at the proper time, these in the form of
the rays of the sun lead him to that where the one lord of the devatas abide.
अगले ही मंत्र में बताया जा रहा है कि इन देवताओं को अर्पित की गई हर चीज उन्हें बुलाती है कि ‘आईए, आईए’। क्या इससे बड़ा सबूत हो सकता है। पुराण, वेद, उपनिषद और गीता के समय तक वे देवता नहीं आए। फिर कब आए?????
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