Monday 11 November 2013

तुम से सवाल है

तुम से सवाल है, ये बताओ कि मजहब यानी धर्म किसी इंसान या उसके नाम से बनता है या उसके खुदाई पैगाम से? क्या किसी पैगम्बर, अवतार या ईमाम को चाह कर धर्म पूरा होता है या उसके पैगाम को चाह कर?
मूसा पैगम्बर थे लेकिन उनके चाहने वालों ने उन्हें अपना जैसा इंसान माना तो खुदा ने उन्हें फेल कर दिया।

ईसा भी पैगम्बर थे लेकिन उनके चाहने वालों को खुदा ने ईमान वालों की लिस्ट से बाहर कर दिया क्योंकि उन्होंने उनके नाम को चाहा और उनके नाम पर अपना धर्म बनाया। उनके पैगाम को चाहा होता तो उतनी ही मौहब्बत खुदा से की होती और जो भी वो पैगम्बर पैगाम दे रहा होता उसे ज्यों का त्यों माना होता। मित्ती की इंजील 7ः21-27 कहती हैः

‘‘जो मुझ से ऐ खुदावंद ऐ खुदावंद कहते हैं उन में से हर एक आसमान की बादशाही में दाखिल न होगा मगर वही जो मेरे आसमानी बाप की मर्जी पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे ऐ खुदावंद ऐ खुदावंद! क्या हम ने तेरे नाम से नुबूवत नहीं की और तेरे नाम से बदरूहों को नहीं निकाला और तेरे नाम से बहुत से मोजिज़े नहीं दिखाए। उस वक्त मैं उनसे साफ कह दूंगा कि मेरी कभी तुम से वाक़फियत न थी ऐ बदकारों मेरे पास से चले जाओ। पस जो कोई मेरी ये बातें सुनता और उन पर अमल करता है वो उस अकलमंद आदमी की मानिंद ठहरेगा जिस ने चट्टान पर अपना घर बनाया। और मेंह बरसा और पानी चढ़ा और आंधियां चलीं और उस घर पर टककरें लगीं लेकिन वो न गिरा क्योंकि उस की बुनियाद चट्टान पर डाली गई थी। और जो कोई मेरी ये बातें सुनता है और उन पर अमल नहीं करता वो उस बेवकूफ आदमी की मानिंद ठहरेगा जिस ने अपना घर रेत पर बनाया। और मेंह बरसा और पानी चढ़ा और आंधियां चलीं और उस घर को सदमा पहुंचाया और वो गिर गया और बिलकुल बरबाद हो गया।’’

हर दौर में लोग इंसानी जिस्मों और नामों को चाहते रहे और उनके पैगाम को भुलाते गए। कुछ लोगों ने अली को चाहा और कुछ लोगों ने तीन सहाबा कराम को। आपसी रंजिश मजहब बन गई। नाम और जिस्म न रहने वाली चीजें थीं। रूह को चाहते तो उन पैगामों को चाहते जो हमेशा हमेशा रहने वाली चीज होती। रूहों से मौहब्बत करते तो खुदा की ताकत और खुदा की रहमत दिखाई देती। जिस्मों को चाहा, जिस्मों से मौहब्बत की तो सिर्फ नफरतें दिखाई दीं। रूहों से मौहब्बत की होती तो खुद अपने में और अपनों में कमियां दिखाई देतीं, रूह ने तरक्की की होती तो हर तरफ मौहब्बत दिखाई देती, अम्न दिखाई देता, जिस्म को चाहा तो सिर्फ नफरतें दिखाई दीं।

इसी तरह क्या राम का पैगाम वही नहीं है जो हर पैगम्बर ने दिया। किसी का दिल न दुखाओ। स्वयं तकलीफ झेल लो, सब्र कर लो बड़ी से बड़ी मुसीबत पर लेकिन अपने कारण किसी दूसरे को तकलीफ न पहुंचाओ। बड़ों का अदब करो चाहे तुम्हारी सौतेली मां ही क्यों न हो। क्या ये सिर्फ खुदाई अहकाम नहीं थे जिन पर और पैगम्बरों की तरह खुद राम ने चल कर दिखाया। फिर खुदा ने सब्र का इम्तेहान ले कर सब के दिलों में और खुद उस सौतेली मां के दिल में मौहब्बत डाल दी। क्या राम खुदा के खास बन्दे नहीं थे? खास हिन्दुस्तान में एक पैगम्बर! और जब सारे इम्तेहान यानी परीक्षाएं दे कर इज़्ज़त के साथ घर लौटे तो एक धोबी अपनी बीवी पर - सीता की मिसाल दे कर - ऐब लगा कर निकालता है कि मैं राम जैसा पति नहीं हूं। क्या एक दुनियावी राजा ऐसा करता कि वो समाज को अपना बनाने के लिए अपनी चाहने वाली बीवी को इस तरह दूर कर देता और बच्चों को मौहब्बत और ऐश-ओ-इश्रत देने की जगह अपने से दूर कर देता। या उस धोबी को ही खत्म करवा देता कि तुम्हारी जुरअत कैसे हुई मेरी बीवी की मिसाल देने की?

कुछ लोग कहते हैं कि राम थे ही नहीं। अगर नहीं थे तो लोगों के दिलों में उनके लिए इतनी मौहब्बत कैसे हुई? बनी बनाई कहानी इतना नहीं बढ़ती कि आज हिन्दुस्तान के कोने कोने में उस नाम से मौहब्बत है। इज्जत और जिल्लत खुदा के हाथ में है। जब तक खुदा किसी नाम को बढ़ाने में मदद न करे वो किसी का भी नाम हो नहीं बढ़ सकता। क्या राम की जिन्दगी आप को किसी पैगम्बर यानी अवतार का पैगाम नहीं देती?

जब नूह ने खुदा के हुक्म से किश्ती बनाई और पैगाम दिया खुदा का कि आओ जो इस किश्ती पर सवार हो जाएगा वो बच जाएगा नही तो तूफान आएगा और सबको बहा कर ले जाएगा उस वक्त खुदा का मकसद यही था कि जो कौम खुदा का पैगाम नहीं मान रही है उसको गर्क कर दिया जाए और ईमान वाले बचा लिए जाएं। जो भरोसा कर रहे थे कि नूह की जबान से जो कलाम निकल रहा है वो खुदा का कलाम है वो बच गए और जिन्होंने नूह के पैगाम को आम इंसान का पैगाम माना और खुदा का पैगाम देने वाले को झूटा क्हा वो पानी में डूब कर मर गए। इन लोगों को खुदा के कलाम से ज्यादा अपनी बात की सच्चाई पर यकीन था। ऐसे लोग हर दौर में खुदा के नजदीक ईमान वालों की लिस्ट से बाहर कर चले जाएंगे, चाहे वो खुदा नूह का बेटा ही क्यों न हो। उस ने उस पैगाम को अपने बाप की बात माना और खुदा का कलाम नहीं माना, तो वो भी गर्क हुआ।

जब भी कोई पैगम्बर आया, लोगों ने उससे मौहब्बत शुरू कर दी और यह भूल गए कि खुदा अपने बन्दों तक अपना पैगाम देने के लिए पैगम्बर भेजता है। मौहब्बत खुदा और उसके कलाम से करना चाहिए न कि खत्म होने वालो जिस्मों से। जो जिस्मानी रिश्तों की मौहब्बत में पड़ गया वही ईमान से दूर होता चला गया। यानी असली ईमान खुदा और उसका पैगाम है चाहे वो किसी भी पैगम्बर के माध्यम से आए हों। हजरत आदम हों या जनाबे मूसा, ईसा हों या इब्राहीम - राम हों या मौहम्मद।

इसी तरह राम जी जिन्हें लोग राजा कहते हैं अस्ल में रूहानी बादशाह थे जिन्होंने दिलों पर हुकूमत की थी रूह के जरिए, इसीलिए धोबी के घर को तबाह नहीं किया बल्कि अपने घर को तबाह कर लिया। बुराई से बचिए, यह खुदा का पैगाम दिया, अपनी खुशियों को मिटा कर, जिसकी वजह से उस कुरबानी को खुदा ने बेकार नहीं करना चाहा और उस नाम को मिटने नहीं दिया।

इसी तरह इमाम हुसैन ने जो कुरबानी दी थी वो औलाद की कुरबानी थी यह दिखाने के लिए कि अल्लाह की राह से न हटो चाहे कोई पैसा देकर भी हटाना चाहे या चाहने वालों की जानों की धमकियां देकर - यहां तक कि औलाद की जानों तक भी बात आ जाए - यह न देखो ये मेरा छह महीने का बच्चा मां की गोद में नहीं रहेगा, यह ने देखो अभी तो मेरे इस जवान बच्चे की शादी भी नहीं हुई और खुदा का पैगाम बचाने के लिए यह भी न सोचो मेरे बाद मेरे घर वालों का क्या होगा, सिर्फ यह दिखा दो कि मुझे अल्लाह के पैगाम से ज्यादा किसी की मौहब्बत नहीं, जो पैगाम पैगम्बरे खुदा ने दिया है कुरआन के माध्यम से, क्योंकि पैगम्बरे खुदा की वफात के बाद फिर से मजहब बनने लगे थे जिस्मों और नामों को चाह कर इसलिए यह शहादत थी इस दुनिया को यह पैगाम देने के लिए कि खुदा की राह दिखाने के लिए अपने घर अपनी औलाद को भी न देखो - फिर भी भूल गई यह दुनिया और समझ में न आ सका कि असली मकसद हुसैन की कुरबानी का क्या था।

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